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समसामयिक सलाह-आमदनी नही सेहत के दृष्टिकोण से करे नवंबर के प्रथम सप्ताह मेंअलसी की खेती

 
समसामयिक सलाह - आमदनी नही सेहत के दृष्टिकोण से करे  नवम्बर के प्रथम सप्ताह में अलसी की खेती।

अलसी (Linum usitatissimum)
आयुर्वेद में अलसी एक महत्वपूर्ण ओषधि हैं, इसे जितना जानो उतना कम है।।
बचपन मे जब कभी आंख में कचरा गिर जाता तो मेरी माताजी के पास तीन ऑप्शन होते थे।
■पानी से,
■घी से, या फिर अंत मे 
■अलसी के बीज से 
जैसे ही अलसी का बीज वो आंखों में छोड़ती वह आंखों में घूमता हुआ कचरे को किनारे ले आता,पर अब शायद ही ऐसा कोई करता होगा!
सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाई जाने वाली अलसी एक तिलहन फसल है,आज से बीस-तीस साल पहले इसे हर किसान थोड़ी-बहुत मात्रा में बोया करता था।
इसी अलसी के लड्डू बनाकर व स्वयं ओर बैलों को खिलाता था ताकि जुताई के समय वे थके नही!!
लेकिन सोयाबीन आने के बाद और औषधीय गुणों की अनभिज्ञता के कारण किसानो ने इससे दुरी बना ली।देश के विभिन्न भागों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।
विभिन्न भाषाओं में अलसी के नाम
■ गुजराती में अडली
■मराठी में जवास
■बिहार में तीली
■बंगाल में मशीना, तीशी, 
■कन्नड़ में अगसी
■मलयालम में चेरुचेना
■तमिल में सिडिराई

यह एक आयुर्वेदिक औषधि है, इसका वर्णन चरक संहिता में भी मिलता है. आयुर्वेद के अनुसार अलसी एक अमर औषधि है जो अनेक रोगों को दूर करती है।
अलसी के गुण
■अलसी शरीर को ऊर्जा व स्फूर्ति को बढ़ाकर,रक्त में शर्करा तथा कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को कम करती है।
■यह जोड़ों के दर्द में भी काफी लाभकारी है....पेट साफ रखने का घरेलू व आसान नुस्खा है।
■हृदय संबंधी रोगों के खतरे को कम करती है।
■हाई ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करती है।
■त्वचा को स्वस्थ व सूखापन दूर कर एग्जिमा आदि से बचाती है।
आइए आज की कड़ी में जानते है कि अलसी की खेती किस प्रकार से की जाती है।

अलसी की खेती
खेत की तैयारी : 
इसकी खेती मटियार व चिकनी दोमट भूमियों मेंसफलतापूर्वक की जा सकती है। खरीफ की फसलें काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए तत्पश्चात् कल्टीवेटरअथवा देशी हल से देशी हल से दो बार जुताई करके खेत अच्छी तरहसमतल कर लेना चाहिए।
उन्नतशील प्रजातियां :
(क) बीज उद्देशीय :
गरिमा, श्वेता, शुभ्रा, लक्ष्मी-27, पद्मिनी, शेखर, शारदा,  मदू आजाद-1
(ख) द्विउद्देशीय : 
गौरव, शिखा, रश्मि, पार्वती

बीज दर : 
बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 30 किग्रा./हे. तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 50 किग्रा./हे. ।

बुवाई की दूरी : 
बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 25 सेमी. कुंड से कुंड तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 20 सेमी. कुंड से कूड ।
बुवाई का समय एवं विधि : 
अलसी बोने का उचित समय सम्पूर्ण अक्टूबर
माह है। इसकी बुवाई हल के पीछे कुंडों में 25 सेमी. की दूरी पर करें।
बीज शोधन :
अलसी की फसल में झुलसा तथा उकठा आदि का संक्रमण प्रारम्भ में बीज या भूमि अथवा दोनों से होता है, जिनसे बचाव हेतु बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से प्रति किग्रा. बीज की दर से।उपचार करके बोना चाहिए।
उर्वरकों की मात्रा : 
असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी उपज प्राप्ति हेतु नत्रजन 50 किग्रा., फास्फोरस 40 किग्रा. एवं पोटाश 40 किग्रा. की दर से तथा सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा.पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। असिंचित दशा में नत्रजन,फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन कीआधी मात्रा व फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय चोगें द्वारा 2-3 सेमी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में प्रथम सिंचाई के बाद प्रयोग करें। फास्फोरस केलिए सुपर फास्फेट का प्रयोग अधिक लाभप्रद है।
सिंचाई :
यह फसल प्रायः असिंचित रूप में बोई जाती है, परन्तु जहांसिंचाई का साधन उपलब्ध है वहां दो सिंचाई पहली फूल आने पर तथा दूसरी दाना बनते समय करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है।
फसल सुरक्षा:
(1) अल्टरनेरिया झुलसा रोग : इस रोग का प्रकोप पौधों के सभी भागोंपर होता है सर्वप्रथम पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे कत्थई रंग के गोलधब्बे रूप में लक्षण दिखाई पड़ता है जो छल्लेदार होता है। यह रोग ऊपरकी ओर बढ़कर तने शाखाओं, पुष्पक्रमों एवं फलियों को भी प्रभावित करता है। रोग की उग्र अवस्था में फलियां काली पड़कर मर जाती हैं और हल्कासा झटका लगने से टूट कर गिर जाती हैं।
रोकथाम:
●बीज को 2.5 ग्राम. थीरम प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधित करके बोयें।
●बुवाई नवम्बर प्रथम सप्ताह में करें।
●गरिमा, श्वेता, शुभ्रा, शिखा, शेखर तथा पद्मिनी प्रजातियां बोयें। 
●खड़ी फसल में मैकोजेब 2.5 किग्रा./हे. की दर से 40-50 दिन परछिड़काव करें। दूसरा और तीसरा छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल परकरें।
(2) रतुआ या गेरूई रोग : इस रोग में पत्तियों, पुष्प, शाखाओं तथा तने पर रतुआ के नारंगी रंग के फफोले दिखाई देते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए मैकोजेब 2.5 किग्रा. अथवा घुलनशील गंधक 3 किग्रा./हे. की दर से छिड़काव करें।
(3) उकठा रोग : रोग ग्रसित पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं तथा बाद में पूरा पौधा सूख जाता है। इस रोग के बचाव के लिए दीर्ध अवधि का फसल चक्र अपनायें ।
(4) बुकनी रोग : इस रोग में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा फैल जाता है और बाद में पत्तियां सूख जाती है। इसकी रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किग्रा./हे. की दर से छिड़काव करें।
अलसी के कीट:
गालमिज : नवजात मैगट सफेद पारदर्शी एवं पीले धब्बेयुक्त होते हैं जो पूर्ण विकसित होने पर गहरे नारंगी रंग के हो जाते हैं। प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग की छोटी मक्खी होती है। इसकी छोटी गिडारें फसल की खिलती कलियों के अन्दर के पुंकेसर का खाकर नुकसान पहुंचाती हैं जिससे फलियों में दाने नहीं बनते हैं।
एकीकृत प्रबंधन :
■ गर्मी की गहरी जुताई से गालमिज की सुंडियां मर जाती है।
■गालमिज से अवरोधी प्रजातियां जैसे नीलम, गरिमा, श्वेता आदि का बुवाई के लिए चयन करना चाहिए।
■ बुवाई अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक अवश्य कर देना चाहिए। चना, सरसों एवं कुसुम के साथ सहफसली करने से गालमिज का प्रकोप कम हो जाता है।
■ संतुलित एवं संस्तुत उर्वरकों का ही प्रयोग करें।
■प्रकाश प्रपंच लगाकर प्रौढ़ मक्खियों को आकर्षित कर मारा जा सकता है।
■कलियां बनना प्रारम्भ होते ही सप्ताह के अन्तराल पर सर्वेक्षण करते रहना चाहिए।
प्रभावी बिन्दु :
संस्तुत प्रजातियों के प्रमाणित बीज प्रयोग करें।संतुलित मात्रा में उर्वरक प्रयोग करें। 
■सिंचाई उपलब्ध होने पर फूल आने के समय कम से कम एक सिंचाई अवश्य करें।
■गालमिज के नियंत्रण के लिए कली बनते समय ही किसी कीटनाशक का छिड़काव कर दिया जाये।
■अधिक उत्पादन हेतु लाइनों में बुआई करें।


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अधिक जानकारी  एवं बीज की उपलब्धता हेतु अपने क्षेत्र के कृषि विभाग के स्थानीय अधिकारी/कर्मचारी से सम्पर्क करें।

घी खाये मांस बढ़े, अलसी खाये ,खोपड़ी।
दूध पिये शक्ति बढ़े, भुला दे सबकी हेकड़ी।।


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