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मिलेट्स:- जानिए रागी (मंडुआ) के गुणों और खेती के बारे में।

 
मिलेट्स:- जानिए रागी (मंडुआ) के गुणों और खेती के बारे में।


अनेक आयुर्वेदिक ग्रंथों में मंडुआ (रागी) के बारे में जानकारी मिलती है। मंडुआ या रागी (Ragi) का पौधा लगभग 1 मीटर तक ऊचाँ होता है। इसके फल गोलाकार अथवा चपटे तथा झुर्रीदार होते हैं। मंडुआ की बीज गोलाकार, गहरे-भूरे रंग के, चिकने होते हैं। इसकी बीज (ragi seeds) झुर्रीदार और एक ओर से चपटे होते हैं। इन्हें ही मड़वा या मंडुआ कहा जाता है। इससे बने आहार मोटापे तथा डायबिटीज से ग्रस्त रोगियों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद होता है।


मंडुआ के बारे में विशेष जानकारी – कई स्थानों पर मंडुआ का प्रयोग कोदो के नाम पर किया जाता है; लेकिन मुख्य कोदो इससे भिन्न प्रजाति है। कोदो का नाम कोद्रव (Paspalum scrobiculutum Linn.) है।


अनेक भाषाओं में मंडुआ के नाम (Name of Mandua (Ragi) in Different Languages)

मंडुआ का वानस्पतिक नाम Eleusine coracana (Linn.) Gaertn. (एलुसाइनी कोराकैना) Syn-Cynosurus coracanus Linn. है और यह Poaceae (पोएसी) कुल का है। मंडुआ या रागी को अन्य अनेक नामों से जाना जाता है, जो ये हैंः-

Mandua in ,Hindi (Ragi in Hindi) – मंडुआ, रागी, मकरा, मंडल, रोत्का
English – कोराकैन मिलेट (Coracan millet), इण्डियन मिलेट (Indian millet), अफ्राप्कन मिलेट (African millet), पोको ग्रास (Poko grass), Finger millet (फिंगर मिलेट)
Sanskrit – मधूलिका, नर्तक, नृत्यकुण्डल, बहुपत्रक, भूचरा, कठिन, कणिश
Oriya – मांडिया (Mandia);उर्दू-मंडवा (Mandwa)
Assamese – मरूबा धान (Maruba dhan)
Konkani – गोन्ड्डो (Gonddo), नाचणे (Nachne)
Kannada – रागी (Ragi)
Gujarati – पागली (Pagali), बावतोनागली (Bavtonagli), नावतोनागली (Navtonagli)
Bengali – मरुआ (Marua)
Tamil – केलवारागू (Kelvaragu), कयुर (Kayur)
Telugu – रागुलु (Ragulu)
Nepali – कोदो (Kodo)
Punjabi – चालोडरा (Chalodra), कोदा (Koda), कोदों (Kodon), मंधल (Mandhal)
Marathi (Ragi in marathi) – नचीरी (Nachiri), नगली (Nagli), नाचणी (Nachini)
Malayalam – मुत्तरि (Muttari)
Rajasthani – रागी (Ragi)
Arabic – तैलाबौन (Tailabon)
Persian – मन्डवाह (Mandwah)
मंडुआ या रागी के फायदे और उपयोग (Mandua or Ragi Benefits and Uses in Hindi)

मंडुआ के औषधीय प्रयोग (benefits of mandua), प्रयोग की मात्रा एवं विधियां ये हैंः-

उल्टी को रोकने के लिए मंडुआ का सेवन (Ragi Benefits in Vomiting Treatment in Hindi)
कई लोगों को उल्टी से संबंधित परेशानी होती रहती है। ऐसे में मंडुआ का प्रयोग लाभ पहुंचाता है। महुआ, हाऊबेर, नीलकमल तथा मधूलिका के चूर्ण को घी तथा शहद के साथ सेवन करें। इससे उल्टी रुक जाती है।

मंडुआ के प्रयोग से रूसी से छुटकारा (Uses of Ragi in Fighting with Dandruff in Hindi)

महुआ, हाऊबेर, नीलकमल तथा मधूलिका के चूर्ण को घी तथा शहद के साथ सेवन करें। इससे रूसी से छुटकारा मिलता है।

सर्दी-जुकाम में मंडुआ का प्रयोग लाभदायक (Uses of Raagi in Cold and Cough in Hindi)

सर्दी-जुकाम जैसी परेशानी में भी मंडुआ का उपयोग बहुत अधिक लाभ पहुंचाता है। इसके लिए आपको गुग्गुलु, राल, पतंग, प्रियंगु, मधु, शर्करा, मुनक्का,मधूलिका तथा मुलेठी लेना है। इनका काढ़ा बनाकर गरारा करना है। इससे रक्तज तथा पित्तज सर्दी-जुकाम की समस्या में लाभ होता है।


सांसों की बीमारी में मंडुआ का उपयोग फायदेमंद (Ragi Benefits in Cure Respiratory Disease in Hindi)

अनेक लोगों को सांसों की बीमारी हो जाती है। आप मंडुआ का विधिपूर्वक इस्तेमाल करेंगे तो सांसों के रोग में फायदा मिलता है। मंडुआ आदि द्रव्यों से विधिपूर्वक बनाए गए शृङ्गयादि घृत (मधूलिकायुक्त) का मात्रापूर्वक प्रयोग करें। इससे सांसों की बीमारी में लाभ होता है।

दस्त को रोकने के लिए मंडुआ का इस्तेमाल (Uses of Ragi to Stop Diarrhea in Hindi)

मंडुआ का लाभ दस्त की समस्या में भी ले सकते हैं। इसका प्रयोग दस्त और पेट दर्द की चिकित्सा में किया जाता है। दस्त में मंडुआ के प्रयोग की जानकारी के बारे में किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक से सलाह लें।

कब्ज में फायदेमंद मंडुआ का सेवन (Benefits of Raagi in Constipation in Hindi)

बहुत लोगों को कब्ज की समस्या रहती है। दरअसल कब्ज एक ऐसी बीमारी है जो कई रोगों का कारण बनती है। विशेषज्ञों के अनुसार रागी का नियमित सेवन लीवर को स्वस्थ बनाये रखने में मदद करता है. जिससे गैस, एसिडिटी और कब्ज आदि समस्याओं में भी आराम मिलता है. अगर आप पेट की कब्ज या गैस से परेशान रहते हैं तो रागी का सेवन करें.
हिचकी की समस्या को ठीक करता है मंडुआ (Ragi Benefits in Hiccup Problem in Hindi)

मंडुआ आदि द्रव्यों से विधिपूर्वक सिद्ध शृङ्गयादि घृत (मधूलिकायुक्त) का मात्रापूर्वक प्रयोग करने से हिक्का में लाभ होता है।

कुष्ठ रोग में मंडुआ का प्रयोग (Uses of Ragi in Fighting with Leprosy Disease in Hindi)
मंडुआ को सफेद चित्रक के साथ मिलाकर सेवन करने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है।
महुआ, हाऊबेर, नीलकमल तथा मधूलिका के चूर्ण को घी तथा शहद के साथ सेवन करें। इससे उल्टी, कुष्ठ रोग, हिचकी और सांसों की बीमारी में लाभ (ragi ke fayde) मिलता है।
मधूलिका, तुगाक्षीरी, दूध, लघुपंच की जड़ तथा काकोल्यादि गण से पेस्ट और काढ़ा को घी में पका लें। इसके प्रयोग से मुखमण्डिका नामक बाल रोग में लाभ होता है।

मंडुआ से खांसी का इलाज (Benefits of Raagi in Cough Disease Treatment in Hindi)
मंडुआ आदि द्रव्यों से विधिपूर्वक पकाए गए शृङ्गयादि घी (मधूलिकायुक्त) का सेवन करने से खांसी ठीक (benefits of mandua) हो जाती है। इसका सेवन की जानकारी आयुर्वेदिक चिकित्सक से जरूर लें।

मोटापा घटाने में सहायक है रागी (Benefits of Ragi for Reducing Obesity in Hindi)

आज के समय में अनियमित जीवनशैली और अधिक मात्रा में फास्ट फ़ूड खाने के कारण मोटापे की समस्या बढ़ती जा रही है. हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि अगर आप अपनी डाइट में हेल्दी चीजों को शामिल करें तो मोटापे पर नियंत्रण पाया जा सकता है. एक शोध के अनुसार रागी में ऐसे औषधीय गुण हैं जो फैट को कम करने में मदद करते हैं. इसलिए अगर आप बढ़ते वजन से परेशान हैं तो अपने रोजाना के आहार में रागी को शामिल करें.

ऑस्टियोपोरोसिस में रागी के फायदे (Uses of Ragi in Treatment of Osteoporosis in Hindi)

रागी में मौजूद पोषक तत्व हड्डियों को कमजोर होने से रोकते हैं और उन्हें स्वस्थ एवं मजबूत बनाये रखते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार रागी के सेवन से ऑस्टियोपोरोसिस होने की संभावना कम होती है. यदि आप ऑस्टियोपोरोसिस के मरीज हैं तो अपनी डाइट में रागी का सेवन बढ़ा दें.

मंडुआ के उपयोगी भाग (Beneficial Part of Mandua)

बीज (ragi seeds)


मंडुआ के प्रयोग की मात्रा (How Much to Consume Mandua?)
काढ़ा – 10-20 मिली

रागी का बहुत अधिक मात्रा में सेवन करने पर इसके नुकसान (Side effects of Ragi) भी हैं। बेहतर होगा कि आप मंडुआ या रागी का प्रयोग चिकित्सक के परामर्शानुसार करें।

मंडुआ कहां पाया या उगाया जाता है? (Where is Mandua Found or Grown?)

मंडुआ या रागी (ragi) पूरे भारत में लगभग 2300 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है। इसकी विशेषतः पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की जाती है। यह उच्चपर्वतीय प्रदेशों में भी पाया जाता है।

रागी (मडुआ) उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी
रागी की खेती

रागी में कैल्षियम की मात्रा सर्वाधिक पायी जाती है जिसका उपयोग करने पर हड्डियां मजबूत होती है। रागी बच्चों एवं बड़ों के लिये उत्तम आहार हो सकता है। प्रोटीन, वसा, रेषा, व कार्वोहाइड्रेट्स इन फसलों में प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। महत्वपूर्ण विटामिन्स जैसे थायमीन, रिवोफ्लेविन, नियासिन एवं आवश्यक  अमीनों अम्ल की प्रचुर मात्रा पायी जाती है जोकि विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के लिये आवश्यक होते है। रागी युक्त आहार कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स वाला होता है। कैल्षियम व अन्य खनिज तत्वों की प्रचुर मात्रा होने के कारण ओस्टियोपोरोसिस से संबंधित बीमारियों तथा बच्चों के आहार (बेबी फुड) हेतु विशेष  रूप से लाभदायक होता है।

भूमि की तैयारीः
पूर्व फसल की कटाई के पष्चात् आवश्यक तानुसार ग्रीष्म ऋतु में एक या दो गहरी जुताई करें एवं खेत से फसलों एवं खरपतवार के अवषेष एकत्रिक करके नष्ट कर दें। मानसून प्रारम्भ होते ही खेत की एक या दो जुताई करके पाटा लगाकर समतल करें।

बीज,बीज दर एवं बोने का उचित समय:-
बीज का चुनाव मृदा की किस्म के आधार पर करें। जहां तक संभव हो प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। यदि किसान स्वयं का बीज उपयोग में लाता है तो बोआई पूर्व बीज साफ करके फफूंदनाषक दवा (कार्वेन्डाजिम/कार्वोक्सिन/क्लोरोथेलोनिल) से उपचारित करके बोयें। रागी की सीधी बोआई अथवा रोपा पद्धति से बोआई की जाती है। सीधी बोआई जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई मध्य तक मानसून वर्षा होने पर की जाती है। छिंटवा विधि या कतारों में बोनी की जाती है। कतार में बोआई करने हेतु बीज दर 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर एवं छिंटवा पद्धति से बोआई करने पर बीज दर 12-15 किलो प्रति हेक्टेयर रखते है।

कतार पद्धति में दो कतारों के बीच की दूरी 22.5 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे। रोपाई के लिये नर्सरी में बीज जून के मध्य से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक डाल देना चाहिये। एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिये बीज की मात्रा 4 से 5 कि.ग्राम लगती है एवं 25 से 30 दिन की पौध होने पर रोपाई करनी चाहिये। रोपाई के समय कतार से कतार व पौधे से पौधे की दूरी क्रमषः 22.5 से.मी. व 10 से.मी. होनी चाहिये।

उन्नतषील किस्में –
रागी की विभिन्न अवधि वाली निम्न किस्मों को मध्यप्रदेष के लिये अनुषंसित किया गया है।

जी.पी.यू. 45:-
यह रागी की जल्दी पकने वाली नयी किस्म है। इस किस्म के पौधे हरे होते है जिसमें मुड़ी हुई वालियाॅ निकलती है। यह किस्म 104 से 109 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं इसकी उपज क्षमता 27 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी है।

चिलिका (ओ.ई.बी.-10):-
इस देर से पकने वाली किस्म के पौधे ऊंचे, पत्तियां चैड़ी एवं हल्के हरे रंग की होती है। बालियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है प्रत्येक बाली में औसतन 6 से 8 अंगुलियां पायी जाती है। दांने बड़े तथा हल्के भूरे रंग के होते है। इस किस्म के पकने की अवधि 120 से 125 दिन व उपज क्षमता 26 से 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म झुलसन रोग के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा तना छेदक कीट के लिये प्रतिरोधी है।

 शुव्रा (ओ.यू.ए.टी.-2):-
इस किस्म के पौधे 80-90 से.मी. ऊंचे होते है जिसमें 7-8 से.मी. लम्बी 7-8 अंगुलियां प्रत्येक बाली में लगती है। इस किस्म की औसत उत्पादक क्षमता 21 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म सभी झुलसन के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा पर्णछाद झुलसन के लिये प्रतिरोधी है।

भैरवी (बी.एम. 9-1):-
म.प्र. के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेष के लिये यह किस्म उपयुक्त है। इस किस्म के पौधे की पत्तियां हल्की हरी होती है। अंगुलियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है व दाने हल्के भूरे रंग के होते है। यह किस्म 103 से 105 दिन में पकती है तथा उत्पादन क्षमता 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन व भूर धब्बा रोग तथा तना छेदक कीट के लिये मध्यम प्रतिरोधी है।

 व्ही.एल.-149 :-
आंध्रप्रदेष व तमिलनाडु को छोड़कर देष के सभी मैदानी एवं पठारी भागों के लिये यह किस्म उपयुक्त है। इस किस्म के पौधों की गांठे रंगीन होती है। बालियां हल्की बैगनी रंग की होती है एवं उनका अग्रभाग अंदर की ओर मुड़ा हुआ होता है। इस किस्म के पकने की अवधि 98 से 102 दिन व औसत उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी है।

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग :-
मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग सर्वोत्तम होता है। असिंचित खेती के लिये 40 किलो नत्रजन व 40 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से अनुषंसित है। नजजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई पूर्व खेत में डाल दें तथा नत्रजन की शेष मात्रा पौध अंकुरण के 3 सप्ताह बाद प्रथम निदाई के उपरांत समान रूप से डालें। गोवर अथवा कम्पोस्ट खाद (100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) का उपयोग अच्छी उपज के लिये लाभदायक पाया गया है। जैविक खाद एजोस्पाइरिलम ब्रेसीलेन्स एवं एस्परजिलस अवामूरी से बीजोपचार 25 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से लाभप्रद पाया गया है।

अन्तःसस्य क्रियाएं :-
रागी की फसल को बोआई के बाद प्रथम 45 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक  है अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है। अतः हाथ से एक निदाई करे अथवा बुआई या रोपाई के 3 सप्ताह के अंदर 2, 4 डी. सोडियम साल्ट (80 प्रतिषत) की एक कि.ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट किये जा सकते है। बालियां निकलने से पूर्व एक और निंदाई करें।

फसल पद्धति:–
रागी की 8 कतारों के बाद अरहर की दो कतार बोना लाभदायक पाया गया है।

पौध संरक्षण
रोग-व्याधियाँ:- फफूंदजनित झुलसन एवं भूरा धब्बा रागी की प्रमुख रोग-व्याधियां है जिनका समय पर निदान उपज में हानि को रोकता है।

झुलसन:-
रागी की फसल पर पौद अवस्था से लेकर बालियों में दाने बनने तक किसी भी अवस्था में फफूंदजनित झुलसन रोग का प्रकोप हो सकता है। संक्रमित पौधे की पत्तियों में भिन्न-भिन्न माप के आंख के समान या तर्कुरूप धब्बे बन जाते है, जो मध्य में धूसर व किनारों पर पीले-भूरे रंग के होते है। अनुकूल वातावरण में ये धब्बे आपस में मिल जाते है व पत्तियों को झुलसा देते है।

बालियों की ग्रीवा व अंगुलियों पर भी फफूंद का संक्रमण होता है। ग्रीवा का पूरा या आंषिक भाग काला पड़ जाता है, जिससे बालियां संक्रमित भाग से टूटकर लटक जाती है या गिर जाती है। अंगुलियां भी आंषिक रूप से या पूर्णरूप से संक्रमित होने पर सूख जाती है जिसके कारण उपज की गुणवत्ता व मात्रा प्रभावित होती है।

रोकथाम
बोआई पूर्व बीजों को फफूंदनाषक दवा मेनकोजेव, कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन या इनके मिश्रण से 2 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचारित करें।
खड़ी फसल पर लक्षण दिखायी पड़ने पर कार्वेन्डाजिम, कीटाजिन या इडीफेनफास 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी) या मेनकोजेव 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के बाद एक छिड़काव पुनः करें।
जैव रसायन स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स का पर्ण छिड़काव (0.2 प्रतिषत) भी झुलसन के संक्रमण को रोकता है।
रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे जी.पी.यू. 45, चिलिका, शुव्रा, भैरवी, व्ही.एल. 149 का चुनाव करें
भूरा धब्बा रोग:-
इस फफूंदजनित रोग का संक्रमण पौधे की सभी अवस्थाओं में हो सकता है। प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे-छोटे हल्के भूरे एवं अंडाकार धब्बे बनते है। बाद में इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है। अनुकूल अवस्था में ये धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों को समय से पूर्व सुखा देते है। बालियों एवं दानों पर संक्रमण होने पर दानों का उचित विकास नहीं हो पाता, दाने सिकुड जाते है जिससे उपज में कमी आती है।

रोकथाम
बोआई पूर्व बीजों को फफूंदनाषक दवा मेनकोजेव, कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन या इनके मिश्रण से 2 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचारित करें।
खड़ी फसल पर लक्षण दिखायी पड़ने पर कार्वेन्डाजिम, कीटाजिन या इडीफेनफास (1 मि.ली. प्रति लीटर पानी) या मेनकोजेव 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के बाद एक छिड़काव पुनः करें।
जैव रसायन स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स का पर्ण छिड़काव (0.2 प्रतिषत) भी झुलसन के संक्रमण को रोकता है।
रोगरोधी किस्मों जैसे भैरवी का बोआई हेतु चयन करें।
कीट:-
तना छेदक एवं बालियों की सूड़ी रागी की फसल के प्रमुख कीट है।

तना छेदक:-
वयस्क कीट एक पतंगा होता है जवकि लार्वा तने को भेदकर अन्दर प्रवेष कर जाता है एवं फसल को नुकसान पहुँचाता है। कीट के प्रकोप से ‘‘डेड हर्ट’’ लक्षण पौधे पर दिखायी पड़ते है।

रोकथाम
1. कीटनाषक दवा डाइमेथोऐट या फास्फोमिडान या न्यूवाक्रान दवा 1 से 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
2. कीट प्रतिरोधक किस्म चिलिका को बोआई हेतु चयन करें।

(ब) बालियों की सूड़ी:-
इस कीट का प्रकोप बालियों में दाने बनने के समय होता है। भूरे रंग की रोयेंदार इल्लियां रागी की बंधी बालियों को नुकसान पहुंचाती है जिसके फलस्वरूप दाने कम व छोटे बनते है।

रोकथाम:-
1. क्विनालफास (1.5 प्रतिषत) या थायोडान डस्ट (4 प्रतिषत) का प्रयोग 24 कि. प्रति हेक्टेयर की दर से करें।
2. कीट प्रतिरोधी जातियों का जैसे भैरवी करें।
साभार
जीरो बजट नैक्चुरल फार्मिंग फाउंडेशन
 एवं किसान समाधान


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धान के खेत मे हो रही हो "काई"तो ऐसे करे सफाई सामान्य बोलचाल की भाषा में शैवाल को काई कहते हैं। इसमें पाए जाने वाले क्लोरोफिल के कारण इसका रंग हरा होता है, यह पानी अथवा नम जगह में पाया जाता है। यह अपने भोजन का निर्माण स्वयं सूर्य के प्रकाश से करता है। धान के खेत में इन दिनों ज्यादा देखी जाने वाली समस्या है काई। डॉ गजेंद्र चन्द्राकर(वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर छत्तीसगढ़ के अनुुसार  इसके निदान के लिए किसानों के पास खेत के पानी निकालने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता और पानी की कमी की वजह से किसान कोई उपाय नहीं कर पाता और फलस्वरूप उत्पादन में कमी आती है। खेतों में अधिकांश काई की समस्या से लगातार किसान परेशान रहते हैं। ऐसे नुकसान पहुंचाता है काई ◆किसानों के पानी भरे खेत में कंसे निकलने से पहले ही काई का जाल फैल जाता है। जिससे धान के पौधे तिरछे हो जाते हैं। पौधे में कंसे की संख्या एक या दो ही हो जाती है, जिससे बालियों की संख्या में कमी आती है ओर अंत में उपज में कमी आ जाती है, साथ ही ◆काई फैल जाने से धान में डाले जाने वाले उर्वरक की मात्रा जमीन तक नहीं

सावधान -धान में लगे भूरा माहो तो ये करे उपाय

सावधान-धान में लगे भूरा माहो तो ये करे उपाय हमारे देश में धान की खेती की जाने वाले लगभग सभी भू-भागों में भूरा माहू (होमोप्टेरा डेल्फासिडै) धान का एक प्रमुख नाशककीट है| हाल में पूरे एशिया में इस कीट का प्रकोप गंभीर रूप से बढ़ा है, जिससे धान की फसल में भारी नुकसान हुआ है| ये कीट तापमान एवं नमी की एक विस्तृत सीमा को सहन कर सकते हैं, प्रतिकूल पर्यावरण में तेजी से बढ़ सकते हैं, ज्यादा आक्रमक कीटों की उत्पती होना कीटनाशक प्रतिरोधी कीटों में वृद्धि होना, बड़े पंखों वाले कीटों का आविर्भाव तथा लंबी दूरी तय कर पाने के कारण इनका प्रकोप बढ़ रहा है। भूरा माहू के कम प्रकोप से 10 प्रतिशत तक अनाज उपज में हानि होती है।जबकि भयंकर प्रकोप के कारण 40 प्रतिशत तक उपज में हानि होती है।खड़ी फसल में कभी-कभी अनाज का 100 प्रतिशत नुकसान हो जाता है। प्रति रोधी किस्मों और इस किट से संबंधित आधुनिक कृषिगत क्रियाओं और कीटनाशकों के प्रयोग से इस कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है । आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक बताएंगे कि भूरा माहू का प्रबंधन किस प्रकार किया जाए। लक्षण एवं पहचान:- ■ यह कीट भूर

समसामयिक सलाह:- भारी बारिश के बाद हुई (बैटीरियल लीफ ब्लाइट ) से धान की पत्तियां पीली हो गई । ऐसे करे उपचार नही तो फसल हो जाएगी चौपट

समसामयिक सलाह:- भारी बारिश के बाद हुई (बैटीरियल लीफ ब्लाइट ) से धान की पत्तियां पीली हो गई । ऐसे करे उपचार नही तो फसल हो जाएगी चौपट छत्त्तीसगढ़ राज्य में विगत दिनों में लगातार तेज हवाओं के साथ काफी वर्षा हुई।जिसके कारण धान के खेतों में धान की पत्तियां फट गई और पत्ती के ऊपरी सिरे पीले हो गए। जो कि बैटीरियल लीफ ब्लाइट नामक रोग के लक्षण है। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर बताएंगे कि ऐसे लक्षण दिखने पर किस प्रकार इस रोग का प्रबंधन करे। जीवाणु जनित झुलसा रोग (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट): रोग के लक्षण ■ इस रोग के प्रारम्भिक लक्षण पत्तियों पर रोपाई या बुवाई के 20 से 25 दिन बाद दिखाई देते हैं। सबसे पहले पत्ती का किनारे वाला ऊपरी भाग हल्का पीला सा हो जाता है तथा फिर मटमैला हरापन लिये हुए पीला सा होने लगता है। ■ इसका प्रसार पत्ती की मुख्य नस की ओर तथा निचले हिस्से की ओर तेजी से होने लगता है व पूरी पत्ती मटमैले पीले रंग की होकर पत्रक (शीथ) तक सूख जाती है। ■ रोगग्रसित पौधे कमजोर हो जाते हैं और उनमें कंसे कम निकलते हैं। दाने पूरी तरह नहीं भरते व पैदावार कम हो जाती है। रोग का कारण यह रोग जेन्थोमोनास

वैज्ञानिक सलाह- धान की खेती में खरपतवारों का रसायनिक नियंत्रण

धान की खेती में खरपतवार का रसायनिक नियंत्रण धान की फसल में खरपतवारों की रोकथाम की यांत्रिक विधियां तथा हाथ से निराई-गुड़ाईयद्यपि काफी प्रभावी पाई गई है लेकिन विभिन्न कारणों से इनका व्यापक प्रचलन नहीं हो पाया है। इनमें से मुख्य हैं, धान के पौधों एवं मुख्य खरपतवार जैसे जंगली धान एवं संवा के पौधों में पुष्पावस्था के पहले काफी समानता पाई जाती है, इसलिए साधारण किसान निराई-गुड़ाई के समय आसानी से इनको पहचान नहीं पाता है। बढ़ती हुई मजदूरी के कारण ये विधियां आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है। फसल खरपतवार प्रतिस्पर्धा के क्रांतिक समय में मजदूरों की उपलब्धता में कमी। खरीफ का असामान्य मौसम जिसके कारण कभी-कभी खेत में अधिक नमी के कारण यांत्रिक विधि से निराई-गुड़ाई नहीं हो पाता है। अत: उपरोक्त परिस्थितियों में खरपतवारों का खरपतवार नाशियों द्वारा नियंत्रण करने से प्रति हेक्टेयर लागत कम आती है तथा समय की भारी बचत होती है, लेकिन शाकनाशी रसायनों का प्रयोग करते समय उचित मात्रा, उचित ढंग तथा उपयुक्त समय पर प्रयोग का सदैव ध्यान रखना चाहिए अन्यथा लाभ के बजाय हानि की संभावना भी रहती है। डॉ गजेंद्र चन्

समसामयिक सलाह-" गर्मी व बढ़ती उमस" के साथ बढ़ रहा है धान की फसल में भूरा माहो का प्रकोप,जल्द अपनाए प्रबंधन के ये उपाय

  धान फसल को भूरा माहो से बचाने सलाह सामान्यतः कुछ किसानों के खेतों में भूरा माहों खासकर मध्यम से लम्बी अवधि की धान में दिख रहे है। जो कि वर्तमान समय में वातारण में उमस 75-80 प्रतिशत होने के कारण भूरा माहो कीट के लिए अनुकूल हो सकती है। धान फसल को भूरा माहो से बचाने के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ गजेंद्र चंद्राकर ने किसानों को सलाह दी और अपील की है कि वे सलाह पर अमल करें। भूरा माहो लगने के लक्षण ■ गोल काढ़ी होने पर होता है भूरा माहो का प्रकोप ■ खेत में भूरा माहो कीट प्रारम्भ हो रहा है, इसके प्रारम्भिक लक्षण में जहां की धान घनी है, खाद ज्यादा है वहां अधिकतर दिखना शुरू होता है। ■ अचानक पत्तियां गोल घेरे में पीली भगवा व भूरे रंग की दिखने लगती है व सूख जाती है व पौधा लुड़क जाता है, जिसे होपर बर्न कहते हैं, ■ घेरा बहुत तेजी से बढ़ता है व पूरे खेत को ही भूरा माहो कीट अपनी चपेट में ले लेता है। भूरा माहो कीट का प्रकोप धान के पौधे में मीठापन जिसे जिले में गोल काढ़ी आना कहते हैं । ■तब से लेकर धान कटते तक देखा जाता है। यह कीट पौधे के तने से पानी की सतह के ऊपर तने से चिपककर रस चूसता है। क्या है भू

सावधान -धान में (फूल बालियां) आते समय किसान भाई यह गलतियां ना करें।

  धान में फूल बालियां आते समय किसान भाई यह गलतियां ना करें। प्रायः देखा गया है कि किसान भाई अपनी फसल को स्वस्थ व सुरक्षित रखने के लिए कई प्रकार के कीटनाशक व कई प्रकार के फंगीसाइड का उपयोग करते रहते है। उल्लेखनीय यह है कि हर रसायनिक दवा के छिड़काव का एक निर्धारित समय होता है इसे हमेशा किसान भइयों को ध्यान में रखना चाहिए। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय बताएंगे कि धान के पुष्पन अवस्था अर्थात फूल और बाली आने के समय किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, ताकि फसल का अच्छा उत्पादन प्राप्त हो। सुबह के समय किसी भी तरह का स्प्रे धान की फसलों पर नहीं करें कारण क्योंकि सुबह धान में फूल बनते हैं (Fertilization Activity) फूल बनाने की प्रक्रिया धान में 5 से 7 दिनों तक चलता है। स्प्रे करने से क्या नुकसान है। ■Fertilization और फूल बनते समय दाना का मुंह खुला रहता है जिससे स्प्रे के वजह से प्रेशर दानों पर पड़ता है वह दाना काला हो सकता है या बीज परिपक्व नहीं हो पाता इसीलिए फूल आने के 1 सप्ताह तक किसी भी तरह का स्प्रे धान की फसल पर ना करें ■ फसल पर अग