Skip to main content

सोयाबीन फसल में विभिन्न कीट के नियंत्रण हेतु अनुसंशित कीटनाशक



सोयाबीन विश्व की सबसे महत्वपूर्ण तिलहनी व ग्रंथिफुल फसल हें. यह एक बहूद्धेशीय व एक वर्षीय पोधे की फसल हें. यह भारत की नंबर वन तिलहनी फसल है। सोयाबीन की खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती हें लेकिन देश में प्रथम मध्य्प्रधेश दूसरा महाराष्ट्र तीसरा राजस्थान राज्य हें।

मौसम में लगातार उतार-चढ़ाव से मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसी कई राज्यों की प्रमुख फसल सोयाबीन में कई तरह के कीट व रोगों का प्रकोप बढ़ गया है। भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी की है कि अगर सही समय पर इनका रोकथाम नहीं किया गया तो किसानों को नुकसान उठाना पड़ सकता है।


पौध संरक्षण फसल की उन्नत उत्पादन तकनीक में सोयाबीन में कीट और रोग नियंत्रण से होने वाली क्षति को नियंत्रित करने के लिये पौध-संरक्षण उपायों को अपनाया जाना आवश्यक है| कीट प्रबंधन- सोयाबीन में मुख्यतः तना मख्खी, नील भृंग, सफेद मक्खी एवं पत्ती खाने वाली इल्लियों का प्रकोप होता है| पत्ती खाने वाली इल्लियों में बिहार इल्ली, तंबाकू की इल्ली और लाल रॉयेदार इल्लियां प्रमुख है|

नियंत्रण के उपाय

1. प्रकाश प्रपंच का प्रयोग कर वयस्क कीट नष्ट करें|

2. सोयाबीन की बुवाई का कार्य समय पर करें|

3. खेत में खरपतवार नियंत्रित करें|

ताना मक्खी (मेलेनेग्रोमइजा फैजियोलाई)

पहचान : मादा मक्खी आकर में 2 मि.मि. लम्बी होती है | मक्खी का रंग पहले भूरा तथा बाद में चमकदार काला हो जाता है | मादा मक्खी अण्डे पत्ती की निचली सतह पर देती है जो की हलके पीले सफेद रंग के होते है | इल्ली हमेशा ताने के अंदर रहती है तथा बिना पैरों वाली एवं हल्के पीले सफेद रंग की होती है शंखी भरे रंग की एवं ताने के अंदर ही पाई जाती है |

प्रकोप : प्रारंभिक अवस्था में प्रकोपित पौधे मर जाते हैं | बीज पत्रों में प्रकोप के कारण टेड़ी- मेढ़ी लकीरे बनती है | इल्ली पट्टी के शिरे से डंठल को अन्दर से खातें हुए ताने में प्रवेश करती है | कीट प्रकोप से प्रारंभिक वृद्धि अवस्था (दो से तिन पत्ती ) में 20 – 30% पौधे प्रकोपित होते है | इल्ली का प्रकोप फसल कटाई तक होता है | फसल में कीट प्रकोप से 25 – 30 % उपज की हानि होती है |

जीवन चक्र : मादा मक्खी शंखी से निकलने के पश्चात् पत्ती अ बीज पत्रों के बीच 14 से 64 अण्डे देती है | अण्डकाल 2 – 3 दिनों का होता है | इल्ली काल 7 – 12 दिनों का होता है | इल्ली अपना एल्लिकल पूर्ण करने के पूर्व ताने में एक निकासी छिद्र बनाकर शंखी में बदलती है | शंखी 5 –9 दिनों में वयस्क कीट में बदलती है | कीट की साल भर में 8 –9 पीढ़ियां होती है |

पोषक पौधे : रबी मौसम में मटर,सेम,और गर्मियो में उड़द , मूंग आदि |

नियंत्रण

कृषिगत नियंत्रण : समय पर बुवाई करें | देर से बुवाई करने से पौधे में कीट प्रकोप बढ़ जाता है |बुआई हेतु अनुशंसित बीज दर का उपयोग करें |प्रकोपित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें |

रसायनिक नियंत्रण : थायोमेथाक्सम 70 डब्ल्यू.एस.3 ग्राम/किलो ग्राम या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल.कब्रोफ्यूरान 3 जी का 30 किलोग्राम/हेक्टेयर की दर से बोआई के समय करें | एक या दो छिडकाव डायमिथोएट 30 ई.सी. 700 मि.ली. या इमिडाक्लोप्रिड 200मि.ली. अथवा थायोमेथाक्सम 25 डब्ल्यू. जी. का 100ग्राम प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करें | हमेशा होलोकोन नोजल का उपयोग छिडकाव हेतु करें |
इसकी रोकथाम के लिए आप जैविक रूप में कर सकते हैं, बीज को साडावीर फंगस फाईटर में शोधित करें।बुबाई में आवश्यक खाद के साथ साडावीर 1 किलो प्रति एकड़ डालें। बुबाई के 10 से 15 दिन बाद साडावीर फंगस फाईटर का छिड़काव करें।

चक्र भृंग (ओबेरिया ब्रेविस)

पहचान : वयस्क भृंग 7 – 10मि.मि.लम्बा, 2 से 4 मि.मि.चौरा तथा मादा नर की अपेछा बड़ी होती है | भृंग का सिर  एवं वक्ष नारंगी रंग का होता है  |पंख वक्ष से जुड़ा होता है | पंख का रंग गहरा भूरा – काला ,श्रृंगिकाएं कलि तथा शारीर से बड़ी होती है | अण्डे पीले रंग के लम्बे गोलाकार होते है , पूर्ण विकसित इल्ली पीले रंग की 19 – 22 मि.मि. लम्बी तथा शारीर खंडो में विभाजित व सिर भूरा रंग का होता है |

प्रकोप : पौधों में जहां पर्णवृन्त,टहनी या ताने पर चक्र बनाए जाते है , उसके ऊपर का भाग कुम्ल्हा कर सुख जाता है | मुख्य रूप से ग्रब (इल्ली) द्वारा नुकसान होता है | इल्ली पौधे के तने को अन्दर से खाकर खोखला कर देता है | पूर्ण विकसित इल्ली फसल पकने के समय पौधों को 15से 25 से.मि. ऊचाई से काटकर निचे गिरा देती है जिससे अपरिपक्व फल्लियाँ उपयोग लायक नही होती है | प्रकोपित फसल में अधिक नुकसान होने पर करीब 50% तक हनी होती है |

जीवन चक्र : चक्र भृंग कीट का स्किरोये समय जुलाई से अक्टूबर माह तथा अगस्त से सितंबर माह में अधिक नुकसान होता है | मादा कीट अण्डे देने के लिए पौधे के पत्ती, टहनी अ ताने के डंठल पर मुखंगो द्वारा दो चक्र 6- 15 मि.मि. की दुरी पर बनती है | मादा कीट संपूर्ण जीवन कल में 10 – 70 अण्डे देती है अण्डो से 8 दिनों में झिल्लियाँ निकलती है | जुलाई माह में दिये अण्डो से निकली इल्ली का इल्ली – कल 32 से 65 दिनों का होता है | तद्पश्चात इल्ली शंखी में परिवर्तित हो जाती है |

फसल काटने से पहल इल्लियाँ पौधों को भूमि के ऊपर से कट देती है तथा स्वंय उपरी कटे हुए पौधे के अन्दर रह जाती है | कुछ दिनों पश्चात इल्लियाँ पुन: ऊपरीकटे हुए पौधों में से एक टुकड़ा 18 से 25 मि.मि. लम्बा काटती है | फिर ये इल्लियाँ इस टुकड़े में आ जाती है तथा भूमि दरारों में विशेषकर मेड़ों के पास जमीं के अन्दर टुकड़े का दूसरा छोर भी कुतरने से बंद कर सुसुप्तावस्था (248-308 दिनों हेतु) में इल्ली जीवन चक्र शुरू करती है | शंखी से वयस्क कीट 8 – 11 दिनों में निकलते है |

पोषक पौधे : मूंग,उड़द एवं खरपतवार, जंगली जूट, बुरवडा आदि |

नियंत्रण :

कृषिगत नियंत्रण : जिन क्षेत्रों में कीट प्रकोप प्रतिवर्ष होता है वहां पर ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई अवश्य करें | मेढ़ों की सफाई करें तथा समय से खरपतवार नियंत्रण करे |फसल की बुआई समय से (जुलाई) करें | समय से पूर्व बुआई करने से कीट प्रकोप ज्यादा होता है | बुआई हेतु 70 – 80 किलो ग्राम प्रति हेक्टेर बीज दर का उपयोग करें | फसल में उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा समय से डालें विशेषकर पोटाश की मात्रा जरुर डाले | अन्त्र्वार्तीय फसल ज्वार या मक्का के साथ बुआई न करें |
किसानों को इस अवस्था में सल्फ़र के साथ फंगस फाईटर का स्प्रे करते रहे।

रसायनिक नियंत्रण : फसल पर कीट के अण्डे देने की शुरुआत पर निम्न में से किसी एक कीटनाशक का छिड़काव कीट नियंत्रण हेतु करे | ट्रायाजोफांस 40ई.सी. 800 मि.ली. अथवा इथोफेनप्राक्स10 ई.सी.1000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर |

पत्तियाँ खाने वाले कीट

हर्री अर्द्धकुण्डलाकार इल्ली (क्रायासोड़ेंकसीस एकयुटा)

पहचान : शलभ के अग्र पंखो पर दो छोटे चमकीले सफेद रंग के धब्बे होते है | जो की अत्यंत पास होने के कारण अंग्रेजी के अंक आठ (8) के आकर के दिखते हैं | अण्डे हलके पीले रंग के एवं गोल होते है जो की इल्लियों के निकलने के पहले काले पड़. जाते है | एल्लियादिन में समान्त: पत्तियों के निचे बैठी रहती है | पूर्ण विकसित इल्ली 37 से 40 मि.मी. लम्बी होती है | एवं पश्च भाग मोटा होता है | इल्लियों के पृष्ट भाग पर एक लम्बवत पिली तथा शारीर के दोनों ओर एक – एक सफेद धारी होती है इल्लियों के पृष्ठ भाग पर एक लम्बवत पीली तथा शारीर के दोनों ओर एक – एक सफेद धारी होती है | शंख प्रारंभ में हलके पीले रंग की तथा कालान्तर में भूरे रंग की होती है शंखी 19 मि.मी.लम्बी तथा 7 मि.मी. चौड़ी होती है |

प्रकोप : इल्लियाँ पत्तियों, फूलों एवं फल्लियों को खा कर क्षति पहुँचती है | बड़ी इल्लियाँ छोटी विकसित होती हुई फल्लियों को कुतर – कुतर कर खाती है तथा बड़ी फल्लियों में छेद कर बढ़ते हुए दानों को खाती है | अधिक प्रकोप होने पर करीब 30% फल्लियाँ अविकसित रह जाती है तथा उनमे डेन नहीं भरते |

जीवन चक्र : मादा शलभ अपने जीवन कल में 40 से 200 अण्डे देती है अत्यधिक ज्यादा प्रकोप होने पर पत्ती डंठल या तानों पर भी अण्डे देती है | अण्डे हलके पीले रंग के एवं गोल होते है जो की इल्लियों के निकलने के पहले काले पड़ जाते है | अण्डकाल 3 से 5 दिनों का होता है | इल्ली कल 14 – 15 दिनों का होता है | शंखी से वयस्क 5 – 7 दिनों में निकलते है | कीट अपना एक जीवन चक्र 24 – 26 दिनों में पूर्ण करता है |

पोषक पौधे : मटर, मूली, सरसों, मूंगफली, पत्तागोभी, आलू, कददूवर्गीय पौधे, करडी, बरसीम आदि |

नियंत्रण :

हरी अर्द्धकुण्डलाकार इल्ली (डायक्रीसिया ओरिचैलिशया)

पहचान : वयस्क शलभ मध्यम आकर एवं सुनहरा पीले रंग की होती है | अग्र पंखों का रंग भूरा जिस पर बड़ा सुनहरा तिकोन धब्बा होता है | अण्डे पीले रंग के एवं गोल होते है नवजात इल्लियाँ हरे रंग की होती है | पूर्ण विकसित इल्ली 4 मि.मी. लम्बी होती है | शंख का रंग भूरा होता है |

प्रकोप :अण्डो से निकलकर छोटी – छोटी इल्लियाँ सोयाबीन के कोमल पत्तियाँ को खुरच कर खाती है तथा बड़ी इल्लियाँ पत्तियों को खाकर नुकसान करती है | अत्यधिक प्रकोप पर पौधा पर्ण विहीन हो जाता है | ये बदली के मौसम में छोटी फल्लियों को खा जाती है तथा बड़ी फल्ल्यों के बढ़ते दानों को फली में छेदकर खाती है |

जीवन चक्र : मादा शलभ साधारणत: पत्ती की निचली सतह पर एक – एक कर अण्डे देती है पर प्रकोप ज्यादा होने की दशा में पत्तियों के डंठल, शाखा एवं ताने पर भी अण्डे देती है | अण्डकाल 3 – 4 दिनों का वयस्क शलभ 2 – 7 दिनों तक जीवित रहती है | जीवन चक्र 27 – 30 दिनों में पूर्ण होता है |

हरी अर्द्धकुण्डलाकार इल्ली (गिसोनिया गेमा)

पहचान : शलभ की लम्बाई 7.3 मि.मी. तथा पंख फैलाव पर 19.4 मि.मी. होती है | शलभ पिली भूरी रंग की होती है जिसके अगले पंख पर तिन लहरदार गहरे भूरी पट्टियांएवं पिछले पंख झिल्लीनुमा गहरे भरे रंग के होते है |अण्डे दुधिया सफेद, गोलाकार पर ऊपरी छोर पर कुछ अन्दर दबा हुआ तथा ऊपर से निचे धारियों तथा आकार में 0.32 मि.मी. के होते हैं | नवजात इल्ली अर्धप्रदर्शी, दुधिया सफेद तथा 0.17 मि.मी. आकर में.होती है | पूर्ण विकसित इल्ली 19 मि.मी. लम्बी तथा 2 मि.मी. चौडाई की होती है तथा पृष्ट भाग पर लम्बवत शरीर के दोनो ओर एक – एक सफेद धारी होती है | शंखी 7 मि.मी. लम्बी तथा 2.5 मि.मी. चौडाई होती है |

जीवन चक्र : मादा शलभ एक – एक करके अण्डे पत्ती की उपरी सतह पर देती है | मादा शलभ अपने जीवन कल में 160 अण्डे देती है | सम्पूर्ण इल्ली अवस्था 11 दिनों की तथा शंखी अवस्था 5 – 9 दिनों की होती है | इल्लीकाल पूर्ण कर सफेद रेशों एवं पत्ती से मिश्रित बने कोए में शंखी में परिवर्तित हो जाती है | पूर्ण जीवन चक्र 26 – 27 दिनों का होता है |

पोषक पौधे : मूंग एवं उड़द आदि |

प्रकोप : यह कीट सोअबिं पर अगस्त के प्रथम सप्ताह से सितंबर के तृतीये सप्ताह तक सक्रिय रहता है | इल्ली अवस्था फसल की पत्तियाँ खाकर नुकसान पहुँचती है | जिससे पत्तियों पर छोटे – छोटे छिद्र बनते है | तृतीय अवस्था की इल्ली द्वारा पत्तियो में छोटे – छोटे छेद् बनाकर खाती है जबकी  बड़ी इल्लियाँ पत्तियोंपर बड़े एवं अनियमित छेद करती है अधिक प्रकोप अवस्था में फसल की पत्तियों के केवल शिराएँ बची रह जाती है |

साधारण : कीट इल्लियों द्वारा फूल एवं फल्लियाँ खाकर नष्ट करती है |

नियंत्रण : निरंतर फसल की निगरानी करते रहें | जब कीट की संख्या आर्थिक क्षति स्तर (तिन इल्ली/मी. कतार फूल अवस्था) से ऊपर होने सिफारिस अनुसार ही कीटनाशक का छिड़काव करें |

भूरी धारीदार अर्धकुण्डलक इल्ली (मोसिस अनडाटा)

पहचान : वयस्क शलभ काले भूरे रंग के एवं आकर में अन्य अर्धकुण्डलक शलभ से बड़ी होती है | जिसका पंख फैलाव 35 – 45 मि.मी. होता है | अग्र पंखों पर तीन धूये के रंग की पट्टियां पाई जाती है | अण्डे हलके हरे रंग के गोल होते है | नवजात इल्लियाँ हरे रंग की होती है | जिनके शारीर पर छोटे छोटे रोंये पाये जाते है |तथा सिर भूरे रंग का होता है | पूर्ण विकसित इल्लियाँ 40 – 50 मि.मी. लम्बी, भूरे – काले रंग की तथा शरीर पर भूरी पिली या नारंगी लम्बवत धारियाँ होती है | शंखी भूरे रंग की एवं की एवं सफेद धागों तथा पत्तियाँ के मिश्रण से बने कोये में पाई जाती है |

जीवन चक्र : मादा अपने जीवन काल में 50 – 200 अण्डे देती है | जिसमे से 3 – 5 दिनों में नवजात इल्लियाँ निकलती है | इल्लियाँ 6 – 7 बार त्वचा निमोर्चन कर 17 – 22 दिनों में अपना ईल्लिकाल पूर्ण कर सफेद रेशो एवं पत्ती से मिश्रित बने कोये में शंखी में परिर्वतित हो जाती है | शंखी कल 8 – 17 दिनों का होता है | वयस्क कीट 7 – 20 दिनों तक जीवित रहते है | कीट का जीवन चक्र सितंबर में 31 – 35 दिनों का जबकि अक्टूबर से दिसम्बर में 38 – 43 दिनों का होता है |

प्रकोप : इसका कीट प्रकोप कम वर्षा सूखे की दशा में ज्यादा होता है | यह कीट इल्ली अवस्था में अगस्त से अक्टूबर माह में सोयाबीन में नुकसान पहुंचाती है | प्रकोप ज्यादा होने की दशा में कीट पौधों को पत्ती विहीन कर देता है जिससे फल्लियाँ कम बनती है |

नियंत्रण हेतु : निरंतर फसल की निगरानी करते रहें | यदि कीट की संख्या कम होने पर कीटनाशक का छिडकाव न करें | कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर सिफारिस अनुसार कीटनाशक दवाओं का छिडकाव करें

तम्बाकू की इल्ली (स्पोड़ोपटेरा लिटूरा)

पहचान : वयस्क शलभ जिसका रंग मटमैला भूरा होता है | अग्र पंख सुनहरे – भूरे रंग के सिरों पर टेड़ी – मेढ़ी धारियां तथा धब्बे होते है | पश्च – पंख सफेद तथा भरे किनारो वाले होते है | नवजात इल्लियाँ मटमैले – हरे रंग की होती है पूर्ण विकसित इल्लियाँ हरे, भूरे या कत्थाई रंग होती है शरीर के प्रतेक खंड के दोनों तरफ काले तिकोन धब्बे इसकी विशेष पहचान है | इसके उदर के प्रथम एवं अंतिम खंडों पर काले धब्बे एवं शारीर पर हरी – पिली गहरी नारंगी धारियाँ होती है | पूर्ण विकसित इल्लियाँ 35 – 40 मि.मी. लम्बी होती है |

प्रकोप : यह कीट सामान्यत: अगस्त से सितंबर तक नुकसान करती है | नवजात इल्लियाँ समूह में रहकर पत्तियों का पर्ण हरित खुरचकर खाती है जिससे ग्रसित पत्तियाँ जालीदार हो जाती है जो की दूर से ही देख कर पहचानी जा सकती है | पूर्ण विकसित इल्ली पत्ती, कलि एवं फली तक को नुकसान करती है |

जीवन चक्र : मादा शलभ द्वारा 1000 – 2000 तक अण्डे अपने जीवन कल में देती है तथा 50 – 300 अण्डे प्रति अण्डा – गुच्छ में पत्तियों की निचली सतह पर दी जाते है |अण्डा – गुच्छों को मादा अपने शरीर के भूरे बालों द्वारा ढक देती है | अंडा अवस्था 3 – 7 दिनों का होती है |अण्डो से 2 – 3 दिनों में इल्लियाँ निकलती है | नवजात इल्लियाँ पीले – हरे रंग की होती है जो 4 – 5 दिनों तक पत्ती की निचली सतह पर ही समूह में रह पर्ण – हरित खुरच – खुरच कर जाती है | पूर्ण विकसित इल्ली 30 – 40 मि.मी. लम्बी होती है तथा 20 – 22 दिनों में शंखी में बदली जाती है | शंखी भूमि के भीतर कोये में पाई जाती है | शंखी में से 8 – 10 दिनों बाद वयस्क शलभ निकलते है | सोयाबीन फसल पर इस कीट का पूरा जीवन चक्र 30 – 37 दिनों का होता है | यह सर्वभक्षी कीट है |

पौषक पोधे : कपास तम्बाकू, टमाटर, गोभी, गाजर, बैगन, सूर्यमुखी, अरन्डी, उड़द, मुंगफली आदि |

आर्थिक क्षति स्तर : 10 इल्ली प्रति मीटर कतार |

नियंत्रण

कृषिगत नियंत्रण : बुआई हेतु अनुशंसित (70 – 100 कि.) बीज दर का उपयोग करें | नियमित फसल चक्र अपनाये |

यांत्रिक नियंत्रण : फिरोमोन ट्रेप 10 – 12 / हेक्टेयर लगाकर कीट प्रकोप का आंकलन एवं उनकी संख्या कम करें | अण्डे व इल्लियों के समूह को इक्कठा कर नष्ट कर दें | 40 – 50 / हे, खूंटी लगायें |

रासानिक नियंत्रण :    

बिहार कम्बलिया कीट (स्पोईलोसोमा ओबलीकुआ)

पहचान :शलभ का सर, वक्ष और शारीर का निचला हिस्सा हल्का पिला एवं उपरी भाग गुलाबी रंग का श्रृंगिकाये व आँखे काली तथा पंख हलके पीले जिन पर छोटे – छोटे काले धब्बे पाये जाते है | शलभ पंख फैलाव पर करीब 40 – 60 मि.मी. होता है | अण्डे पहले हरे तथा परिपक होने पर काले हो जाट है |नवजात इल्लियाँ पिली तथा शरीर पर रोएं हो जाते है | इल्ली की तीसरी अवस्था लगभग 20 – 25 मि.मी. लम्बी होती है जो की इधर उधर घूम कर अधिक नुकसान करती है पूर्ण विकसित इल्लियाँ 40 – 45 मि.मी. तक लम्बी होती है तथा भूरे लाल रंग की एवं बड़े रोए वाली होती है | पूर्ण विकसित इल्लियाँ अपने शरीर के बालों को लार से मिलाकर कोय (भांखी कवच) बनती है | भांखी गहरे भरे रंग की होती है |

प्रकोप : नवजात इल्लियाँ अण्ड – गुच्छों से निकलकर एक ही पत्ती पर ही झुण्ड में रहकर पर्ण हरित खुरच कर खाती है | नवजात इल्लियाँ 5 – 7 दिनों तक झुण्ड में रहने के पश्चात् पहले उसी पौधे पर्येवाम बाद में अन्य पोधों पर फेल कर पूर्ण पत्तियाँ खाती है | जिससे पत्तियाँ पूर्णत: पर्ण हरित विहीन जालीनुमा हो जाती है | इल्लियों द्वारा खाने पर बनी जालीनुमा पत्तियों को दूर से ही देख कर पहचाना जा सकता है |

जीवन चक्र : मादा शलभ अपने जीवन काल में 3 – 5 अण्ड गुच्छों में 500 से 1300 अण्डे पत्तियों की निचली सतह पर देती है |अण्डकाल 3 से 15 दिनों का होता है | शंखी से 9 – 15 दिनों में शलभ निकलती है | कीट 35 – 42 दिनों में एक जीवन चक्र पूर्ण करता है | कीट की साल भर में 8 पीढ़ियां होती है |

पोषक पौधे : मूंग, उड़द, सूर्यमुखी, अलसी, तिल, अरण्डी, पत्तागोभी आदि |

आर्थिक क्षति स्तर : 10 इल्लियाँ / मीटर कतार |

नियंत्रण : इल्ली के प्रारंभिक अवस्था के झुंड को इक्कठा कर नष्ट कर दें | आर्थिक क्षति स्तर से अधिक कीट प्रकोप होने पर कीटनाशक दवाई का छिड़काव करे |

सोयाबीन का फसल छेदक (हेलिकोवरपा आमीर्जेरा)

पहचान : वयस्क शलभ मटमैला भूरा या हल्के कत्थाई रंग की जिसके अगले पंखों पर बादामी रंग की आड़ी – तिरछी रेखायें होती है | जबकि पिछले पंख रंग में सफेद तथा बहरी किनारों पर चौड़े काले (यकृति जैसे) धब्बे होते है | वयस्क शलभ दिन में पत्तियों में छिपी रहती है तथा रात में फसल पर भ्रमक करती है |  अण्डे गोलाकार तथा चमकदार हरे – सफेद रंग के होते हैं अण्डों की सतह पर तिरछी धारियाँ पायी जाती है | अण्डे शुरू में चमकिले हरे – सफेद रंग के होते हैं जो इल्लियों के निकलने के एक दिन पहले काले हो जाते है | नवजात इल्लियाँ हरे रंग की होती है | पूर्ण विकसित इल्ली करीब 3.5 – 4 मि.मी. लम्बी होती है जिनके शरीर के बगल में गहरे पीले रंग की टूटी धारी होती है | सर हल्का भूरा होता है इल्ली का रंग अलग – अलग होता है |

प्रकोप : नवजात इल्लियाँ कली, फूल एवं फल्लियों को खाकर नष्ट करती है पर फल्लियों में दाने पड़ने के पश्चात इल्लियाँ फलली में छेद कर दाने खाकर आर्थिक रूप से हानी पहुँचती है | फलली के समय 3 – 6 इल्लियां प्रति मीटर होने पर सोयाबीन की पैदावार में 15 -90 प्रतिशत तक हानी होती है |

जीवन चक्र : मादा शलभ रात्री में पत्तियों की निचली सतह पर एक एक कर 1200 से 1500 तकअण्डे देती है | अण्डाकाल 3 – 4 एवं इल्ली – काल 20 – 25 दिनों का होता है | पूर्ण विकसित इल्ली भूमि में गहराई में जाकर मिटटी में शंखी में परिवर्तित हो जाती है | शंख में परिवर्तित हो जाती है | शंखी कल 9 – 13 दिनों का होता है | कीट अपना एक जीवन चक्र 31 – 35 दिनों में पूर्ण करता है |

नियंत्रण: ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई कर इल्ली व शंखी को इक्कठा कर नष्ट करें (चने के इल्ली हेतु) फसल में 50 अंग्रेजी के टी (T) अथवा दोफनी आकर की खूंटियां (3 – 5 फीट ऊँची) पक्षियों के बैठने हेतु फसल की शुरआत से ही लगाये | जिन पर पक्षी बैठ कर इल्लियाँ खा सके | कीट दिखाई देने पर 12 फिरोमोन ट्रेप/ हे. के हिसाब से लगा दें |

रसायनिक नियंत्रण पत्ती खाने वाली एवं फली छेदक इल्लियों के लिए : अदि आर्तिक क्षति स्तर से अधिक नुकसान होता है , तो कीटनाशक दवाई का उपयोग करें |अचयनित दवाओं का उपयोग न करें | कीट बृद्धि नियंत्रण (आई.जी.आर.) जैसे डायलूबेंजुरान 25 डब्लू.पी. 350 ग्राम/ हे. या नोवेल्युरान 10 ई.सी. 375मि.ली.या लेफेयुरान 10 ई.सी. 500 मि.ली./ हे. अथवा जैविक कीट नाभाक, एन.पी.व्ही. 250 एल.ई./हे. अथवा डायपेल, वायोबिट या हाल्ट 1 किलो ग्राम / हे. या बयोरिन या लावोसेल 1 किलोग्राम/ हे. अथवा रासायनिक कीट नाभाक जैसे क्लोरापेरिफास 20 ई.सी. 1.5 ली. अ प्रोफेनोफाम 50 ई.सी. 1.2 ली. अ रायनेक्सीपार 10 एस.पी.100 मि.ली. या इमामेकिटन बेंजोएट 5 एस.जी. 180 ग्राम या मिथोमिल 40 एस.जी. 1000 मि.ली. या प्रोफेनेफास 500 ई. सी. 1.25 ली. अ लेम्बड़ा सायलोहेर्थिन 5 ई.सी. 300 मि.ली. या इनडोक्सकर्ब 14.8एस.एल. 300 मि.ली./ हे. के हिसाब से उपयोग करें | चूर्ण जैसे फैनवेलरेट 0.4 प्रतिशत 25 किलोग्राम/हे. के हिसाब से उपयोग करें |

रस चूषक कीट

पहचान : वयस्क कीट लगभग 1 मि.मी. लम्बा होता है | जिसके पंख सफेद – पीले रंग के होते है, जो मोमयुक्त पर्तदार पंखो वाली मक्खी होती है | अण्डे करीब 0.2 मि.मी. लम्बे, नाशपाती आकार के होते है, शंखी कलि नाशपाती आकार की होती है | अण्डो का रंग सफेद होता है | लेकिन निकलने के पहले ये भूरे या काले रंग के हो जाते है | निम्फ (भिभा) नाभापाती आकार के हलके पीले रंग के होते है | दूसरी एवं चौथी अवस्था में यह चल नही सकते है |

प्रकोप का तरीका : इसका प्रकोप पौधे के एक पत्ती अवस्था से ही प्रारंभ हो जाता है | जो की फसल की हरी अवस्था तक प्रकोप करता रहता है | शिशुयेवाम वयस्क पौधे से रस चूसते हैं | यह पीला विषाणु रोग फैलता है, जो कि फसल की मुख्य समस्या है |

जीवन चक्र : मादा मक्खी अपने जीवनकाल में 40 – 100 तक अण्डे देती है | जिसके रंग पीला एवं पत्तियों के निचली सतह पर देती है | शिशु अवस्था 7 – 14 दिनों की होती है वयस्क 8 – 14 दिनों में निकलते हैं | कीट का एक जीवन चक्र 13 – 62 दिनों तक होता है |

नियंत्रण : पीला विषाणु रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला दें | बोनी के पहले बीज को थायोमेथाकसम 70 डब्लू.एस. 3 ग्राम/किलोग्राम या इमिडाक्लोप्रीड 17.8 एस.एल. 5 मि.ली./किलोग्राम की दर से बीजोपचार कर बोनी करें | फसल पर कीट का आक्रमण होने पर निम्नलिखित कोई एक कीट नाभाक दवा का छिड़काव करें | ट्रायाजोफांस 40 ई.सी. 800 – 1000 एम.एल. या थायमेथेक्जेम 25 डब्ल्यू.जी. 100 ग्राम या इमिडाक्लोप्रीड 17.8 एस.एल. 200 मि.ली. या मेथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 800मि.ली./हे. |

लाल मकड़ी (टेट्रानिक्स टेलारीयस)

पहचान : माइट या मकड़ी के वयस्क अंडाकार आकार के लाल या हरे रंग के 0.4 से 0.5 मि.मी. लम्बे बालों वाले एवं आठ टांगो वाले होते है | प्रथम अवस्था में 3 जोड़ी पैर होते है तथा रंग गुलाबी होता है | दिवतीय तथा तृतीय अवस्था में 4 जोड़ी पैर होते है | सभी अवस्था येपत्तीओं की निचली सतह पर सफेद महीन पारदशी झिल्ली के निचे पाई जाती है | अण्डे आकार में गोले,सफेद रंग तथा 0.1 मि.मी. की गोलाई लिये होते है |

प्रकोप : इसका प्रकोप सोया बीन फसल पर सामान्यत सितम्बर से अक्टूबर माह में विभोष कर कम वर्षा की स्थिति में ज्यादातर देखने को मिलता है | वयस्क तथा शिशु दोनों अवस्थाएं पौधों के तना, शाखा, फ्ल्लियां तथा पत्तियों का रस चूसकर हानी पहुंचाते है | प्रकोपित भागों पर पतली, सफेद एवं पारदर्शी झिल्ली पड़ी होती है | रस चूसने के कारण पत्तियों पर सफेद – क्त्थाई धब्बे बनतें है तथा पत्तियां प्रकोप के कारण मुरझा जाती है | प्रकोपित पौधों की ऊपज में 15 प्रतिशत तक कमी होती है | ग्रसित पौधे के दाने सिकुड़ जाते है तथा उनकी अंकुरण क्षमता अत्यधिक प्रभावित होती है |

जीवन चक्र : मादा अलग – अलग करके पत्ती के निचले सतह पर लगभग 60 – 65 अण्डे देती है | 4 – 7 दिनों में अण्डों से शिशु निकलते है | और पौधों का रस चूसने लगते है | 6 – 10 दिनों के बाद शिशु से वयस्क बनते है | शिशु और वयस्क  एक महीन पारदर्शक जले से ढकी रहती है |

पोषक पौधे : मूंग, उड़द, टमाटर, भिन्डी, कपास आदि |

नियंत्रण : खड़ी फसल पर अत्याधिक प्रकोप होने पर ही निम्नलिखित कोई एक कीट नाभाक जैसे इथियान 50% ई.सी. 1.5 ली. या प्रोफेनोफास 50% ई.सी., या ट्रायाजोफांस 40 ई.सी. 800 मि.ली. या डायाफेनिथायूरान 50 डब्ल्यू.पी. 500 ग्राम प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करें |

सफेद सुण्डी (व्हाइट ग्रब) (होलोट्रोकिया कानसेगूंनिया)

पहचान : भृंग का आकार में 7 मि.मी. चौड़ा तथा 18 मि.मी. लम्बा होता है | वयस्क भृंग नवविकसित अवस्था में पीले रंग का जो बाद में चमकदार तांबे जैसा हो जाता है | इल्ली या ग्रब (लट) अवस्था का रंग सफेद होता है | पूर्ण विकसित इल्ली का शरीर मोटा, रंग मटमैला – सफेद तथा आकार अंग्रेजी के “सी” अक्षर के समान मुदा होता है | जिनका सिर गहरे भरे रंग का तथा मुखांग मजबूत होता है |

प्रकोप का तरीका : कीट के लट(इल्ली) एवं वयस्क दोनों अवस्था हानि पहुँचती है पर इल्ली अवस्था में फसलों को ज्यादा नुकसान पहुँचती है | वयस्क भृंग विभिन्न पौधों एवं कुछ झाड़ीनुमा वृक्षों की पत्तियाँ खाते है जबकि अण्डों से निकली नवजात इल्लियाँ शुरू में भूमि के अंदर पौधों की छोटी – छोटी जड़ों को खाती है तथा बड़ी होने पर मुख्य जड़ो को तेजी से काटती है | परिणामस्वरूप प्रकोपित पौधे पहले मुरझाते है फिर सुख कर नष्ट हो जाते है | जिससे खेतों में जगह – जगह घेरे बन जाते है | इल्ली एवं शंखी भूमि में पाई जाती है |

जीवन चक्र : व्यस्क भृंग वर्षा ऋतू की शुरुआत में jun – जुलाई में भारी वर्षा होने पर अपनी सुसुप्तावस्था तोड़कर भूमि से बाहर एक साथ काफी संख्या में निकलते है | मद कीट भूरभूरी और नमी युक्त मृदा में 1 से 6 इंच की गहराई में पौधे के पास अण्डे देती है | अण्डे लगभग 30 – 50 दिन में उचित तापमान होने पर फूटते है | इल्ली (कोया) बनाकर भूमि के ऊपरी सतह पर सुसुप्तावस्था में रहते है | कीट वर्ष में अपना एक जीवन चक्र पूर्ण करता है |

कृषिगत नियंत्रण : गर्मी में खेतों की गहरी जुताई एवं सफाई कर कीट की सुसुप्तावस्था तोड़ दें |

यांत्रिक नियंत्रण : प्रकाश प्रपंच की सहायता से प्रौढ़ कीट को इक्कठा कर नष्ट कर दें |

जैविक नियंत्रण :बेबोरीया बेसीयाना और मेटारहिजीयम एनिसोपली 5 किलो ग्राम को गोबर की खाद या केचुए की खाद (2.5 कि.) के साथ मिश्रित कर खेत में फैला दें ।




Comments

अन्य लेखों को पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करे।

कृषि सलाह- धान की बाली बदरंग या बदरा होने के कारण व निवारण (पेनिकल माइट)

कृषि सलाह - धान की बाली बदरंग या बदरा होने के कारण व निवारण (पेनिकल माइट) पेनिकल माइट से जुड़ी दैनिक भास्कर की खबर प्रायः देखा जाता है कि सितम्बर -अक्टूबर माह में जब धान की बालियां निकलती है तब धान की बालियां बदरंग हो जाती है। जिसे छत्तीसगढ़ में 'बदरा' हो जाना कहते है इसकी समस्या आती है। यह एक सूक्ष्म अष्टपादी जीव पेनिकल माइट के कारण होता है। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक बताएंगे कि पेनिकल माइट के लक्षण दिखे तो उनका प्रबंधन कैसे किया जाए। पेनिकल माइट धान की बाली बदरंग एवं बदरा- धान की बाली में बदरा या बदरंग बालियों के लिए पेनिकल माईट प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। पेनिकल माईट अत्यंत सूक्ष्म अष्टपादी जीव है जिसे 20 एक्स आर्वधन क्षमता वाले लैंस से देखा जा सकता है। यह जीव पारदर्शी होता है तथा पत्तियों के शीथ के नीचे काफी संख्या में रहकर पौधे की बालियों का रस चूसते रहते हैं जिससे इनमें दाना नहीं भरता। इस जीव से प्रभावित हिस्सों पर फफूंद विकसित होकर गलन जैसा भूरा धब्बा दिखता है। माईट उमस भरे वातावरण में इसकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है। ग्रीष्मकालीन धान की ख

वैज्ञानिक सलाह-"चूहा नियंत्रण"अगर किसान भाई है चूहे से परेशान तो अपनाए ये उपाय

  वैज्ञानिक सलाह-"चूहा नियंत्रण"अगर किसान भाई है चूहे से परेशान तो अपनाए ये उपाय जैविक नियंत्रण:- सीमेंट और गुड़ के लड्डू बनाये:- आवश्यक सामग्री 1 सीमेंट आवश्यकता नुसार 2 गुड़ आवश्यकतानुसार बनाने की विधि सीमेंट को बिना पानी मिलाए गुड़ में मिलाकर गुंथे एवं कांच के कंचे के आकार का लड्डू बनाये। प्रयोग विधि जहां चूहे के आने की संभावना है वहां लड्डुओं को रखे| चूहा लड्डू खायेगा और पानी पीते ही चूहे के पेट मे सीमेंट जमना शुरू हो जाएगा। और चूहा धीरे धीरे मर जायेगा।यह काफी कारगर उपाय है। सावधानियां 1लड्डू बनाते समय पानी बिल्कुल न डाले। 2 जहां आप लड्डुओं को रखे वहां पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। 3.बच्चों के पहुंच से दूर रखें। साभार डॉ. गजेंद्र चन्द्राकर (वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर छत्तीसगढ़ संकलन कर्ता हरिशंकर सुमेर तकनीक प्रचारकर्ता "हम कृषकों तक तकनीक पहुंचाते हैं"

सावधान-धान में ब्लास्ट के साथ-साथ ये कीट भी लग सकते है कृषक रहे सावधान

सावधान-धान में ब्लास्ट के साथ-साथ ये कीट भी लग सकते है कृषक रहे सावधान छत्तीसगढ़ राज्य धान के कटोरे के रूप में जाना जाता है यहां अधिकांशतः कृषक धान की की खेती करते है आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर ने बताया कि अगस्त माह में धान की फसल में ब्लास्ट रोग का खतरा शुरू हो जाता है। पत्तों पर धब्बे दिखाई दें तो समझ लें कि रोग की शुरुआत हो चुकी है। धीरे-धीरे यह रोग पूरी फसल को अपनी चपेट में ले लेता है। कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि इस रोग का शुरू में ही इलाज हो सकता है, बढ़ने के बाद इसको रोका नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि किसान रोजाना अपनी फसल की जांच करें और धब्बे दिखाई देने पर तुरंत दवाई का छिड़काव करे। लक्षण धान की फसल में झुलसा (ब्लास्ट) का प्रकोप देखा जा रहा है। इस रोग में पौधों से लेकर दाने बनने तक की अवस्था में मुख्य पत्तियों, बाली पर आंख के आकार के धब्बे बनते हैं, बीच में राख के रंग का तथा किनारों पर गहरे भूरे धब्बे लालिमा लिए हुए होते हैं। कई धब्बे मिलकर कत्थई सफेद रंग के बड़े धब्बे बना लेते हैं, जिससे पौधा झुलस जाता है। अपनाए ये उपाय जैविक नियंत्रण इस रोग के प्रकोप वाले क्षेत्रों म

रोग नियंत्रण-धान की बाली निकलने के बाद की अवस्था में होने वाले फाल्स स्मट रोग का प्रबंधन कैसे करें

धान की बाली निकलने के बाद की अवस्था में होने वाले फाल्स स्मट रोग का प्रबंधन कैसे करें धान की खेती असिंचित व सिंचित दोनों परिस्थितियों में की जाती है। धान की विभिन्न उन्नतशील प्रजातियाँ जो कि अधिक उपज देती हैं उनका प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ रहा है।परन्तु मुख्य समस्या कीट ब्याधि एवं रोग व्यधि की है, यदि समय रहते इनकी रोकथाम कर ली जाये तो अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। धान की फसल को विभिन्न कीटों जैसे तना छेदक, पत्ती लपेटक, धान का फूदका व गंधीबग द्वारा नुकसान पहुँचाया जाता है तथा बिमारियों में जैसे धान का झोंका, भूरा धब्बा, शीथ ब्लाइट, आभासी कंड व जिंक कि कमी आदि की समस्या प्रमुख है। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक बताएंगे कि अगर धान की फसल में फाल्स स्मट (कंडुआ रोग) का प्रकोप हो तो इनका प्रबंधन किस प्रकार करना चाहिए। कैसे फैलता है? फाल्स स्मट (कंडुआ रोग) ■धान की फसल में रोगों का प्रकोप पैदावार को पूरी तरह से प्रभावित कर देता है. कंडुआ एक प्रमुख फफूद जनित रोग है, जो कि अस्टीलेजनाइडिया विरेन्स से उत्पन्न होता है। ■इसका प्राथमिक संक्रमण बीज से हो

धान के खेत मे हो रही हो "काई"तो ऐसे करे सफाई

धान के खेत मे हो रही हो "काई"तो ऐसे करे सफाई सामान्य बोलचाल की भाषा में शैवाल को काई कहते हैं। इसमें पाए जाने वाले क्लोरोफिल के कारण इसका रंग हरा होता है, यह पानी अथवा नम जगह में पाया जाता है। यह अपने भोजन का निर्माण स्वयं सूर्य के प्रकाश से करता है। धान के खेत में इन दिनों ज्यादा देखी जाने वाली समस्या है काई। डॉ गजेंद्र चन्द्राकर(वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर छत्तीसगढ़ के अनुुसार  इसके निदान के लिए किसानों के पास खेत के पानी निकालने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता और पानी की कमी की वजह से किसान कोई उपाय नहीं कर पाता और फलस्वरूप उत्पादन में कमी आती है। खेतों में अधिकांश काई की समस्या से लगातार किसान परेशान रहते हैं। ऐसे नुकसान पहुंचाता है काई ◆किसानों के पानी भरे खेत में कंसे निकलने से पहले ही काई का जाल फैल जाता है। जिससे धान के पौधे तिरछे हो जाते हैं। पौधे में कंसे की संख्या एक या दो ही हो जाती है, जिससे बालियों की संख्या में कमी आती है ओर अंत में उपज में कमी आ जाती है, साथ ही ◆काई फैल जाने से धान में डाले जाने वाले उर्वरक की मात्रा जमीन तक नहीं

सावधान -धान में लगे भूरा माहो तो ये करे उपाय

सावधान-धान में लगे भूरा माहो तो ये करे उपाय हमारे देश में धान की खेती की जाने वाले लगभग सभी भू-भागों में भूरा माहू (होमोप्टेरा डेल्फासिडै) धान का एक प्रमुख नाशककीट है| हाल में पूरे एशिया में इस कीट का प्रकोप गंभीर रूप से बढ़ा है, जिससे धान की फसल में भारी नुकसान हुआ है| ये कीट तापमान एवं नमी की एक विस्तृत सीमा को सहन कर सकते हैं, प्रतिकूल पर्यावरण में तेजी से बढ़ सकते हैं, ज्यादा आक्रमक कीटों की उत्पती होना कीटनाशक प्रतिरोधी कीटों में वृद्धि होना, बड़े पंखों वाले कीटों का आविर्भाव तथा लंबी दूरी तय कर पाने के कारण इनका प्रकोप बढ़ रहा है। भूरा माहू के कम प्रकोप से 10 प्रतिशत तक अनाज उपज में हानि होती है।जबकि भयंकर प्रकोप के कारण 40 प्रतिशत तक उपज में हानि होती है।खड़ी फसल में कभी-कभी अनाज का 100 प्रतिशत नुकसान हो जाता है। प्रति रोधी किस्मों और इस किट से संबंधित आधुनिक कृषिगत क्रियाओं और कीटनाशकों के प्रयोग से इस कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है । आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक बताएंगे कि भूरा माहू का प्रबंधन किस प्रकार किया जाए। लक्षण एवं पहचान:- ■ यह कीट भूर

समसामयिक सलाह:- भारी बारिश के बाद हुई (बैटीरियल लीफ ब्लाइट ) से धान की पत्तियां पीली हो गई । ऐसे करे उपचार नही तो फसल हो जाएगी चौपट

समसामयिक सलाह:- भारी बारिश के बाद हुई (बैटीरियल लीफ ब्लाइट ) से धान की पत्तियां पीली हो गई । ऐसे करे उपचार नही तो फसल हो जाएगी चौपट छत्त्तीसगढ़ राज्य में विगत दिनों में लगातार तेज हवाओं के साथ काफी वर्षा हुई।जिसके कारण धान के खेतों में धान की पत्तियां फट गई और पत्ती के ऊपरी सिरे पीले हो गए। जो कि बैटीरियल लीफ ब्लाइट नामक रोग के लक्षण है। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर बताएंगे कि ऐसे लक्षण दिखने पर किस प्रकार इस रोग का प्रबंधन करे। जीवाणु जनित झुलसा रोग (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट): रोग के लक्षण ■ इस रोग के प्रारम्भिक लक्षण पत्तियों पर रोपाई या बुवाई के 20 से 25 दिन बाद दिखाई देते हैं। सबसे पहले पत्ती का किनारे वाला ऊपरी भाग हल्का पीला सा हो जाता है तथा फिर मटमैला हरापन लिये हुए पीला सा होने लगता है। ■ इसका प्रसार पत्ती की मुख्य नस की ओर तथा निचले हिस्से की ओर तेजी से होने लगता है व पूरी पत्ती मटमैले पीले रंग की होकर पत्रक (शीथ) तक सूख जाती है। ■ रोगग्रसित पौधे कमजोर हो जाते हैं और उनमें कंसे कम निकलते हैं। दाने पूरी तरह नहीं भरते व पैदावार कम हो जाती है। रोग का कारण यह रोग जेन्थोमोनास

वैज्ञानिक सलाह- धान की खेती में खरपतवारों का रसायनिक नियंत्रण

धान की खेती में खरपतवार का रसायनिक नियंत्रण धान की फसल में खरपतवारों की रोकथाम की यांत्रिक विधियां तथा हाथ से निराई-गुड़ाईयद्यपि काफी प्रभावी पाई गई है लेकिन विभिन्न कारणों से इनका व्यापक प्रचलन नहीं हो पाया है। इनमें से मुख्य हैं, धान के पौधों एवं मुख्य खरपतवार जैसे जंगली धान एवं संवा के पौधों में पुष्पावस्था के पहले काफी समानता पाई जाती है, इसलिए साधारण किसान निराई-गुड़ाई के समय आसानी से इनको पहचान नहीं पाता है। बढ़ती हुई मजदूरी के कारण ये विधियां आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है। फसल खरपतवार प्रतिस्पर्धा के क्रांतिक समय में मजदूरों की उपलब्धता में कमी। खरीफ का असामान्य मौसम जिसके कारण कभी-कभी खेत में अधिक नमी के कारण यांत्रिक विधि से निराई-गुड़ाई नहीं हो पाता है। अत: उपरोक्त परिस्थितियों में खरपतवारों का खरपतवार नाशियों द्वारा नियंत्रण करने से प्रति हेक्टेयर लागत कम आती है तथा समय की भारी बचत होती है, लेकिन शाकनाशी रसायनों का प्रयोग करते समय उचित मात्रा, उचित ढंग तथा उपयुक्त समय पर प्रयोग का सदैव ध्यान रखना चाहिए अन्यथा लाभ के बजाय हानि की संभावना भी रहती है। डॉ गजेंद्र चन्

समसामयिक सलाह-" गर्मी व बढ़ती उमस" के साथ बढ़ रहा है धान की फसल में भूरा माहो का प्रकोप,जल्द अपनाए प्रबंधन के ये उपाय

  धान फसल को भूरा माहो से बचाने सलाह सामान्यतः कुछ किसानों के खेतों में भूरा माहों खासकर मध्यम से लम्बी अवधि की धान में दिख रहे है। जो कि वर्तमान समय में वातारण में उमस 75-80 प्रतिशत होने के कारण भूरा माहो कीट के लिए अनुकूल हो सकती है। धान फसल को भूरा माहो से बचाने के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ गजेंद्र चंद्राकर ने किसानों को सलाह दी और अपील की है कि वे सलाह पर अमल करें। भूरा माहो लगने के लक्षण ■ गोल काढ़ी होने पर होता है भूरा माहो का प्रकोप ■ खेत में भूरा माहो कीट प्रारम्भ हो रहा है, इसके प्रारम्भिक लक्षण में जहां की धान घनी है, खाद ज्यादा है वहां अधिकतर दिखना शुरू होता है। ■ अचानक पत्तियां गोल घेरे में पीली भगवा व भूरे रंग की दिखने लगती है व सूख जाती है व पौधा लुड़क जाता है, जिसे होपर बर्न कहते हैं, ■ घेरा बहुत तेजी से बढ़ता है व पूरे खेत को ही भूरा माहो कीट अपनी चपेट में ले लेता है। भूरा माहो कीट का प्रकोप धान के पौधे में मीठापन जिसे जिले में गोल काढ़ी आना कहते हैं । ■तब से लेकर धान कटते तक देखा जाता है। यह कीट पौधे के तने से पानी की सतह के ऊपर तने से चिपककर रस चूसता है। क्या है भू

सावधान -धान में (फूल बालियां) आते समय किसान भाई यह गलतियां ना करें।

  धान में फूल बालियां आते समय किसान भाई यह गलतियां ना करें। प्रायः देखा गया है कि किसान भाई अपनी फसल को स्वस्थ व सुरक्षित रखने के लिए कई प्रकार के कीटनाशक व कई प्रकार के फंगीसाइड का उपयोग करते रहते है। उल्लेखनीय यह है कि हर रसायनिक दवा के छिड़काव का एक निर्धारित समय होता है इसे हमेशा किसान भइयों को ध्यान में रखना चाहिए। आज की कड़ी में डॉ गजेंन्द्र चन्द्राकर वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय बताएंगे कि धान के पुष्पन अवस्था अर्थात फूल और बाली आने के समय किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, ताकि फसल का अच्छा उत्पादन प्राप्त हो। सुबह के समय किसी भी तरह का स्प्रे धान की फसलों पर नहीं करें कारण क्योंकि सुबह धान में फूल बनते हैं (Fertilization Activity) फूल बनाने की प्रक्रिया धान में 5 से 7 दिनों तक चलता है। स्प्रे करने से क्या नुकसान है। ■Fertilization और फूल बनते समय दाना का मुंह खुला रहता है जिससे स्प्रे के वजह से प्रेशर दानों पर पड़ता है वह दाना काला हो सकता है या बीज परिपक्व नहीं हो पाता इसीलिए फूल आने के 1 सप्ताह तक किसी भी तरह का स्प्रे धान की फसल पर ना करें ■ फसल पर अग