होमा खेती (अग्निहोत्र)
होम खेती की शुरूआत का पता वेदों से चलता है इसका सिध्दांत है कि“आप वातावरण को शुद्ध व दोषमुक्त रखेंगे तो स्वच्छ वातावरण आपको सभी दोषों से मुक्त करेगा।" होमा खेती के प्रणेता इसे अन्वेषित अध्यात्मिक विज्ञान कहते हैं और यह मूलतः वैदिक काल की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। होमा खेती की अवधारणा के अनुसार यदि पवित्र अग्नि के समक्ष विशिष्ट संस्कृत मंत्रों का उच्चारण (अग्निहोत्र पूजा) निश्चित समय पर किया जाये तो पूरा वातावरण ऊर्जामय हो जाता है जिसमें समस्त जीव स्वरूपों की जैविक क्रिया बढ़ जाती है।
यद्यपि इस प्रक्रिया में कोई भी पद खेती विशिष्ट नहीं है परंतु यह प्रक्रिया परिवार, वातावरण, पौधों, फसलों व पशुओं को ऊर्जा प्रदान करती है । पूजा या हवन से प्राप्त राख का उपयोग खाद रुप में पौधों और जानवरों आदि को शक्ति प्रदान करने में किया जा सकता है।
होमा जैविक खेती चूंकि एक वातावरण उपचार प्रक्रिया है अतः इसे किसी भी प्रकार की अन्य जैविक खेती प्रक्रिया के साथ अपनाया जा सकता है। होमा प्रणाली भले ही बहुत कम खर्चीली हो परंतु इसके प्रचालन में अत्याधिक अनुशासन और समय का नियंत्रण अति आवश्यक है।
अग्निहोत्र मूलतः होमाग्नि तकनीक है जो कि वेदों के अनुसार सूर्योदय एवं सूर्यास्त की जैविक लय ताल पर आधारित है और प्राचीन वेद विज्ञान में इसका उल्लेख मिलता है। अग्हिोत्र को वर्तमान समय में काफी सरल और व्यवस्थित कर दिया गया है । अतः कोई भी इसे प्रयोग कर सकता है । अग्निहोत्र के दौरान सूखा गाय का गोबर व घी को (मक्खन का शुध्द रूप), उल्टे शंकु के आकार के तांबे के बर्तन में (हवन कुंड में) भूरे चावलों के साथ एक विशेष मंत्र का जाप करते हुए अग्नि प्रज्वलित कर जलाया जाता है ।
ऐसी मान्यता है है कि हवन कुण्ड में जैविक पदार्थो के जलने व उपयुक्त मंत्रोपचार से मूल्यवान शुद्धिकरण ऊर्जा निकलती है । यह ऊर्जा वातावरण में समाहित होने के साथ-साथ हवन कुण्ड की राख में भी समाहित हो जाती है । इस ऊर्जा से भरी राख का जैविक खेती में विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जा सकता है।
अग्निहोत्र एवं होम या हवन की राख को खेतों या क्यारियों में फैला देने के अतिरिक्त और भी कई प्रकार से इसके उपयोग की सलाह दी गई है ।
यहां पर कुछ उदाहरण दिये जा रहे है :-
बीजों और कंदों के उपचार हेतु
बुआई से पहले बीजों और कंदों को हवन कुण्ड की राख और गोमूत्र मिश्रण से उपचारित करना चाहिये ।
2-5 लीटर पानी में 2-5 लीटर/गौ मूत्र मिलाकर इसमें चार चम्मच अग्निहोत्र राख (प्रति पांच लीटर के हिसाब से) डालकर मिश्रण बनाये और इसे अच्छी तरह से हिलायें ।
बीजों और कंदों को इस मिश्रण में 30-40 मिनट के लिये डुबो कर रख दें। इससे पौधों का अंकुरण अच्छा होगा और उनमें कीट व व्याधियों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होगी । गाय के गोबर के समान, गौ मूत्र में भी बैक्टीरिया के खिलाफ लड़ने की क्षमता होती है और बीजों और कंदों के चारों ओर एक परत चढ़ जाती है जो कि बीजों और कंदों की रक्षा करती है ।
उपचारित बीज छाँव में फैलाकर सुखा लें। बीज इतने सूखे होने चाहिये कि आसानी से चारों तरफ बिखेरे जा सके परंतु इतने भी सूखे न हो कि बीजों की परत निकल जाये ।
यदि यह पूरी तरह सूख जायेंगे तो बीजों का अंकुरण नहीं होगा अतः इनमें हल्की नमी होना आवश्यक है । कंदों को उपचारित करने के बाद तुरंत रोप देना या लगा देना चाहिये ।
उर्वरक या खादें
■अग्निहोत्र राख व बिच्छू बूटी अर्क का मिश्रण बनाकर पौधों को खाद रूप में दिया जा सकता है।
■यह विशिष्ट द्रव्य पौधों को शक्ति प्रदान करता है । बिच्छू बूटी अर्क को 7 से 14 दिनों तक या मौसम के अनुसार अग्निहोत्र राख व पानी मिलाकर सड़ने दें।
■ सड़न पूर्ण होने पर छानकर अर्क निकाल लें। इस अर्क को एक से नौ के अनुपात में जल में मिलाकर स्प्रे करें।
पौध पुष्टिकारक घोल
■ अग्निहोत्र पौध पुष्टिकारक घोल बनाने के लिए चार चम्मच अग्हिोत्र राख और चार चम्मच बारीक पिसा हुआ सूखा गोबर लेकर लगभग पांच लीटर पानी में डालकर हिलायें और स्प्रे रूप में पौधों पर स्प्रे करें।
इसे 14 दिनों के अंतराल में या आवश्यकतानुसार दे सकते है होगा। और एक बार इन सभी पहलुओं को समझकर उत्पादन प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाये तो यह संस्कृति सबके लिये भरपूरता का वचन देती है।
छिड़काव वाला घोल
छिड़काव किये जाने वाला पुष्टिकारक घोल पांच लीटर पानी में चार चम्मच अग्निहोत्र राख मिलाकर बनाया जा सकता है। इस घोल को तीन दिनों तक के लिए रख देते है और फिर बारीक छन्नी से छान लेते है यह पौधों को कीटों और अन्य बीमारियों से बचाता है। छिड़काव किये जाने वाले घोल को कुछ विशिष्ट फर्न की कलियों से भी तैयार किया जा सकता है, इसमें 150 ग्राम फर्न की कलियों को दो लीटर पानी में दो चम्मच अग्हिोत्र राख के साथ मिलाकर सात से दस दिनों के लिए सड़ने को रख देते है, फिर इसे पतली महीन छन्नी से छानकर छिड़काव पध्दति से पौधों पर समान रूप से छिड़क देते है यह पौधों की कीट आदि
से (जैसे शम्बूक) रक्षा करता है।
ग्लोरिया बायोसोल एक प्रभावशाली होम जैव उर्वरक
ग्लोरिया बायोसोल बहुत ही प्रभावशाली जैव उर्वरक है जिसे होम वातावरण से तैयार किया जा सकता है । बायोसोल द्रव्य का उपयोग पौधों में मृदा का पालन पोषण करता है । बायोसोल वर्मीवाश से श्रेष्ठ है जिसमें अत्याधिक संख्या में लाभकारी सूक्ष्मजीव और होम या हवन की ऊर्जा होती है। अतिग्होत्र राख उन सभी तत्वों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है, जिनकी सहायता से बायोसोल को सूक्ष्म मात्रिक तत्वों से समृध्द बनाया जाता है ।
बायोसोल बनाने हेतु आवश्यक तत्व :-
(i) ताजा गाय का गोबर
(ii) केंचुआ खाद
(iii) गौ मूत्र
(iv) अग्निहोत्र की राख
(v) पानी
उपरोक्त तत्वों को 200, 500 या 1000 लीटर टैंक में मिला लेते है । इसमें एक तांबे का श्री यंत्र डाल दिया जाता है । इसके पश्चात् टैंक को बीस से तीस दिनों तक के लिए सीलबंद कर देते है। पाचन की क्रिया पूर्ण होने के पश्चात् द्रव को निकाल सकते है । बायोसोल को अग्निहोत्र राख के घोल के साथ एक से दस के अनुपात में मिलाकर उपयोग करते है । एक एकड़ के लिए 200 लीटर बायोसोल का घोल आवश्यक है । बायोसोल मिश्रण का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल से किसी भी फसल पर किया जा सकता है । बायोसोल मिश्रण का प्रयोग सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के बाद करना चाहिये । यदि हम बायोसोल मिश्रण को अच्छी तरह से बंद केन में रखते है तो यह लंबे समय तक ठीक रहेगा अर्थात लगभग 6 महीने तक बचा हुआ बायोसोल का ठोस या गाढ़ा मिश्रण (जिसमें अत्याधिक सूक्ष्म पुष्टिकारक होते है) किसी भी प्रकार की जैविक खाद के साथ एक से पाँच के अनुपात में मिलाकर दे सकते है ।
साभार
जैविक खेती
(धारणा, परिदृश्य, सिद्धांत एवं प्रबंधन)
मूल आलेख
ए.के. यादव
निदेशक
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र
गाजियाबाद
हिन्दी रूपांतरण
ए.के. यादव
निदेशक
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र गाजियाबाद
डा. एम.के. पालीवाल
सहायक निदेशक
क्षेत्रीय जैविक खेती केन्द्र जबलपुर
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र
कृषि एवं सहकारिता विभाग
कृषि मंत्रालय, भारत सरकार
सी.जी.ओ. II, कमला नेहरू नगर
गाजियाबाद - 201002, उत्तर प्रदेश
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