"बायोडायनेमिक कृषि"
प्राचीन समय से ही यह धारणा है कि हमारे जीवन के हर पहलू, पर्यावरण व मौसम पर सूर्य,चाँद, सितारों व नक्षत्रों की गति का महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। इसी आधार पर यह भी माना जाता है कि कृषि एवं फसल उत्पादन पर भी इन नक्षत्रों का महत्वपूर्ण प्रभाव होता है।
इन नक्षत्रीय शक्तियों की प्रभाविता को ध्यान में रखकर विभिन्न संस्थाओं द्वारा कुछ जैव सक्रिय उत्पाद(Biodynamic preparations) विकसित किये गये हैं। ये जैव सक्रिय उत्पाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के साथ नाशीजीव प्रबंधन में भी योगदान करते हैं।
जैव सक्रिय पदार्थों के लगातार प्रयोग से मिट्टी की खोई हुई उर्वरा क्षमता पुर्नस्थापित होती है तथा मिट्टी के स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर सुधार होता है। कुछ जैव सक्रिय उत्पाद रोगनिरोधी पदार्थों के रूप में कार्य करते हैं और कृषि नाशीजीव के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
जैव सक्रिय पदार्थों के प्रायोजकों के अनुसार “जैव सक्रिय पदार्थों के प्रयोग से मिट्टी और उसके आसपास के वातावरण में ऐसी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की शुरूआत होती है जिससे मिट्टी और उसमें उगने वाले पौधों में नक्षत्रीय शक्तियों को ग्रहण करने और उन शक्तियों को लाभ वाली प्रक्रियाओं में बदलने की क्षमता उत्पन्न होती है।
जैव सक्रिय उत्पाद पौधों का भोजन नहीं हैं वरन् ये पौधों में नक्षत्रीय शक्तियों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाते हैं। कम्पोस्ट में प्रयुक्त होने वाले जैव सक्रिय उत्पाद कम्पोस्ट उत्प्रेरक या वृद्धिकारक होकर कुछ विशिष्ट जीवाणुओं द्वारा नक्षत्रीय शक्तियों को ग्रहण करने की क्षमता उत्पन्न करते हैं जिससे विभिन्न पोषण तत्व चक्रों का निर्बाध संचालन होता है।
संक्षेप में जैव सक्रिय उत्पाद ऐसे जैविक उत्पाद हैं जिनसे नक्षत्रीय शक्तियों को मिट्टी में विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं एवं तत्व चक्रों को मजबूत एवं प्रभावी करने के काम में लिया जाता है। अभी तक कुल मिलाकर नौ प्रकार के जैव सक्रिय उत्पाद विकसित किये गये हैं और उन्हें नुस्खा क्र.500 से 508 तक नाम दिये गये है।
इन उत्पादों में नुस्खा क्र.500 (बी.डी.-500) तथा नुस्खा क्र.501 (बी.डी.-501) सर्वाधिक लोकप्रिय है। नुस्खा क्र.502 से 507 (बी.डी.502 से बी.डी.507) कम्पोस्ट उत्पादन में प्रयुक्त किये जाते है। नुस्खा क्र.508 (बी.डी.-508) रोगनिरोधी है और अनेक प्रकार के फफूंद जन्य रोगों की रोकथाम में सहायक है।
बी.डी.-500 (सींग खाद)
भारतीय परम्पराओं एवं मान्यताओं के अनुरूप तथा जैव सक्रिय पदार्थों के प्रणेता रूडोल्फ स्टेनर के अनुसार, एक ओर जहाँ गाय का गोबर अनेक नक्षत्रीय शक्तियों से पूर्ण है वहीं गाय के सींग खोल में नक्षत्रीय शक्तियों को ग्रहण करने की अभूतपूर्व क्षमता है। इस प्रक्रिया में इन दोनों पदार्थों की अभूतपूर्व क्षमता का प्रयोग किया गया है। हाथ की दिशा उल्टी कर घुमायें। इस प्रकार बारी-2 से घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा में घुमाते रहे। इस घोल को स्प्रेयर की मदद से खेत मे मिट्टी पर स्प्रे करें। यदि स्प्रेयर उपलब्धन हो तो एक झाडू की मदद से मिट्टी पर छिडक दें। इस मिश्रण को बनाने के एक घंटे के अंदर प्रयोग करें। इस मिश्रण का प्रयोग सूर्यास्त के समय करना चाहिये। सींग खाद के प्रयोग से मिट्टी में मित्र सूक्ष्मजीवों की बढोत्तरी होती है, केचुंओं की संख्या बढ़ती है तथा जडों का अच्छा विकास होता है। नक्षत्रीय शक्तियों के कारण पौध बढ़वार अच्छी होती है और भूमि की जैविकीय प्रक्रियाओं में सुधार होता है।
बी.डी 501 (सींग सिलिका खाद) :
इस नुस्खे में क्वार्टज सिलिका का महीन चूर्ण गाय के सींग खोल मे भरकर गर्मी के मौसम मे लगभग 6 माह तक गाड़कर रखा जाता है इसका प्रयोग फसल पर स्प्रे रूप में किया जाता है तथा इसके प्रयोग से पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया में वृद्धि होती है, फलों और दानों की गुणवत्ता में सुधार होता है और कुछ रोग (जैसे मिल्डयू व ब्लाइट) एवं कीटों की भी रोकथाम होती है।
उत्पादन विधि
१.सिलिका चूर्ण बनाना :
क्वार्टज सिलिका एक प्रकार का प्राकृतिक खनिज है जो कि चमकदार पत्थरों के रूप में मिलता हैं । सिलिका पत्थरों को तोड़कर छोटे -छोटे टुकड़े करें, अन्य पत्थर मिट्टी इत्यादि अलग कर निकाल दें। साफ टुकड़ों को पल्वराइजर से महीन चूर्ण बना लें। यदि पल्वराइजर उपलब्ध न हो तो कूटकर महीन चूर्ण बनायें और पतले कपडे से छान लें। सिलिका पाउडर बिल्कुल टैल्कम पाऊडर जितना महीन (250-300 मेश ) होना चाहिये।
२.सींग खोलों को भरना :
सिलिका पाऊडर को ताजा ट्यूबवैल या वर्षा जल के साथ मिलाकरगूंध लें और एक गाढी लुग्दी बना लें। इस लुग्दी को धीरे-2 सींगों में भरें। ध्यान रहे सींग मे कोई भी खाली जगह या हवा नहीं रहनी चाहिये। सींगों को लगभग दो घंटे के लिये सीधा खड़ा कर छोड़ दें और बीच-2 मे थोडा-2 ठकठकाते रहें। लगभग दो घंटे में फालतू पानीउपर आ जायेगा उसे निथार कर अलग कर दें और खाली जगह को सिलिका लुग्दी से भर दें। फिर जैसा कि बी.डी. - 500 मे बताया है के अनुसार गढे में गाड दें और मिट्टी से ढक दे।
३.गाडने और निकालने का समय :
बी.डी.-500 के विपरीत सिलिका सींगों को चैत्र नवरात्र के समय गाड़ा जाता है और क्वार नवरात्र के समय निकाला जाता है।
४.सिलिका खाद निकालना व भंडारण
उपयुक्त समय पर सींगों को खोदकर निकालें और सिलिका को इकट्ठा करें। किसी साफ पक्के फर्श या पोलीथीन पर फैलाकर धूप मे सुखा लें। इस सूखे चूर्ण को काँच की बोतलों में या चीनी मिट्टी के बर्तनों में भरकर रखा जा सकता है। इन बोतलों या बर्तनों को खुले हवादार तथा रोशनी से भरपूर स्थान पर रखना चाहिये। सींग सिलिका को कभी भी छायादार, ठंडे या अंधेरे स्थान पर नहीं रखना चाहिये।
५. प्रयोग विधि :
एक एकड़ के लिये केवल 1 ग्राम बी.डी 501 पर्याप्त है। एक ग्राम सींग सिलिका को 13 लिटर पानी में मिलायें और जैसा कि बी.डी-500 नुस्खें मे बताया है के अनुसार एक घंटे तक बारी-2 से घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा मे तेजी से घुमाते रहें ,फिर ढक देंवे।
इस घोल को अच्छे स्प्रेयर की मदद से खेत के उपर हवा में छिडकें। स्प्रे करते समय सबसे महीन वाला नोजल लगायें और नोजल को सिर के उपर पकड़कर आकाश की दिशा मे रखते हुऐ स्प्रे करें। इस प्रकार सिलिका के महीन कण समान रूप से चारों ओर फसल की पत्तियों पर फैल जायेंगे। सींग सिलिका का प्रयोग सुबह सूर्योदय के बाद करना चाहिये। इसे सभी प्रकार की फसलों में तीन बार प्रयोग किया जाता है पहली बार जब फसल मे ३-४ पत्तियाँ हो व बाद मे 30 दिन के अंतर पर दो बार ।
अन्य जैव सक्रिय उत्पाद
उपरोक्त दो नुस्खों के अलावा क्र. 502 से 508 तक के और जैव सक्रिय उत्पाद विकसित किये गये है। परंतु उनको बनाने की विधियाँ बहुत विचित्र हैं और भारतीय परम्पराओं एवं मान्यताओं के अनुरूप नहीं हैं। इस कारण ये नुस्खे भारत में लोकप्रिय नहीं हैं। इन नुस्खों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। ये नुस्खे बाजार में भी उपलब्ध हैं तथा कुछ संस्थाओं द्वारा भारत में ही बनाये जा रहे है। बी. डी. 502 - नमीयुक्त यारौ (Achillea millefolium) के फूलों को बसंत ऋतु में हिरन के ब्लैडर में रखते हैं, तत्पश्चात् इस ब्लैडर को सूर्य की रोशनी में लटकाया जाता है तथा इसको पूरी शरद ऋतु में अच्छी नमीयुक्त मिट्टी में दबाकर रखते हैं और बसन्त ऋतु में मिट्टी से निकालते हैं तथा कम्पोस्ट में मिलाकर खेत में डालते हैं। यह मिश्रण कम्पोस्ट को पोटाश व सल्फर के संचालन में मद्द करता है।
बी. डी. 503 -
चैमोमिली (Matricria chamomilla) के फूलों को ग्रीष्म ऋतु में इक्कट्ठा करके थोड़ा पानी डालकर एवं चामोमिली चाय मिलाकर ताजा कटी हुई गाय की ऑत में डालकर इसके छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते हैं तथा इन टुकड़ों को अच्छी ह्यूमस वाली मिट्टी में वर्षा के मौसम में दबाया जाता है। दबाने के स्थान का चयन बर्फ पिघलने पर पानी के बहाव के नजदीक होना चाहिए। इस तरह से प्राप्त मिश्रण कम्पोस्ट में कैल्शियम निर्धारण में मदद करता है।
बी. डी. 504 -
स्टींगगिंग नेटल (Urtica dioica) को पीट मौस घास में लपेटकर एक वर्ष तक मिट्टी में दबाया जाता है तत्पश्चात् इसको कम्पोस्ट में मिलाया जाता है। यह कम्पोस्ट के युमिफिकेशन मे मद्द करता है।
बी. डी. 505 -
ओक वृक्ष की छाल को मृत बकरी या भेंड़ के सिर वाले हिस्से में भरकर वर्षा के मौसम में किसी ऐसी जगह दबाया जाता है जहाँ पानी का धीरे-धीरे रिसाव होता हो। इस मिश्रण को बसन्त ऋतु में मिट्टी से निकालकर कम्पोस्ट में मिलाया जाता है जिससे कम्पोस्ट में कैल्शियम वृद्धि के साथ-साथ पौधों की रोग रोधक क्षमता भी बढ़ती है।
बी. डी. 506 -
डैन्डेलियन वृक्ष के सूखे फूलों को बसंत ऋतु में इक्कट्ठा कर तथा थोड़ा गीला करके मरी हुई गाय की ऑत के आस-पास वाली झिल्ली में डालकर एक वर्ष तक मिट्टी में पोटाश के बीच होने वाली प्रक्रिया को तेज कर पोटैशियम आयन को मिट्टी में छोड़ने में मद्द करता है।
बी. डी. 507 -
वैलेरियन (Valeriana officinalis) के फूलों के रस को वर्षा जल में मिलाकर कम्पोस्ट पिट पर छिड़काव से कम्पोस्ट की फास्फोरस घुलनशीलता में वृद्धि होती है। प्रायः यह देखा गया है कि बी.डी. मिश्रण को बनाना काफी जटिल है लेकिन एक बार बनाने के पश्चात् इन मिश्रणों को कांच की बोतलों में अधिक समय तक रखा जा सकता है। एक चम्मच बी.डी. कम्पोस्ट मिश्रण (502-507) तीन घन मीटर कम्पोस्ट पिट के लिए पर्याप्त है। एक चाय का चम्मच बी.डी मिश्रण (502-506) कम्पोस्ट पिट में 30-40 से.मी. गहरा छेद कर डाला जा सकता है। बी.डी. मिश्रण 507 को पानी में मिलाकर कम्पोस्ट पिट पर छिड़काव करना चाहिए।
बी. डी. 508 -
ताजा कटे हुए होर्सटेल पौधे (Equisetum auriense) को पानी में डालकर 20 मिनट तक उबाला जाता है तथा इसको छानकर काँच की बोतलों में भरकर अधिक समय के लिए रखा जा सकता है। यह घोल फफूंदी नाशक का काम करता है।
काउ पैट पिट (C.P.P.)
ईंटों का 90x60x30 से.मी. का गढ़ा बनाया जाता है जिसको नीचे से पक्का नहीं किया जाता, इसमें 60 कि.ग्रा. ताजा गाय का गोबर, 200 ग्राम अण्डे के छिलके एवं 300 ग्राम ग्रेनाईट डस्ट को अच्छी तरह मिलाकर 12 से.मी. तक भरा जाता है। गढ्ढ़ा भरकर समतल किया जाता है तथा इसमें पांच छेद किये जाते हैं जिनमें बी.डी. मिश्रण 502 से 506, 3 ग्राम प्रति सूत्र की दर से प्रत्येक छेद में डाला जाता है। बी.डी. मिश्रण 507 को पानी में मिलाकर पिट पर छिड़काव किया जाता है तथा टाट की बोरियों से इसको ढ़क दिया जाता है। चार सप्ताह पश्चात् वायु प्रवाह हेतु इसको उलटा पलटा जाता है तथा दोबारा से ढ़क दिया जाता है।
इसी प्रकार एक सप्ताह बाद फिर हल्की खुदाई करें, C.P.P. लगभग 12 सप्ताह में बनकर तैयार हो जाता है। C.P.P. को कई तरह से प्रयोग किया जा सकता है। 100 ग्राम C.P.P. प्रति एकड़ केहिसाब से बी. डी. 500 या 501 में मिलाकर स्प्रे किया जा सकता है। C.P.P. को 2 कि. ग्रा./एकड़ की दर से कम्पोस्ट में मिलाकर भी प्रयोग किया जा सकता है। C.P.P. को 5 कि. ग्रा./एकड़ की दर से फसल पर हर 15 दिन में छिड़काव किया जा सकता है। C.P.P. को फल वृक्षों के तनों पर पेस्ट के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। C.P.P. को बायोडाईनेमिक कम्पोस्ट में बी.डी. 502-507 की जगह भी प्रयोग किया जा सकता है। साभार
जैविक खेती
(धारणा, परिदृश्य, सिद्धांत एवं प्रबंधन)
मूल आलेख
ए.के. यादव
निदेशक
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र
गाजियाबाद
हिन्दी रूपांतरण
ए.के. यादव
निदेशक
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र गाजियाबाद
डा. एम.के. पालीवाल
सहायक निदेशक
क्षेत्रीय जैविक खेती केन्द्र जबलपुर
राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र
कृषि एवं सहकारिता विभाग
कृषि मंत्रालय, भारत सरकार
सी.जी.ओ. II, कमला नेहरू नगर
गाजियाबाद - 201002, उत्तर प्रदेश
तकनीक प्रचारक
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