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छत्तीसगढ़ की चाय की महक पूरे देश भर में फैल रही है, जशपुर के चाय बागानों की चर्चा


 छत्तीसगढ़ की चाय की महक पूरे देश भर में फैल रही है, जशपुर के चाय बागानों की चर्चा।




चाय पीने वालों की दुनिया में असम या दार्जिलिंग की चाय का नाम ही काफी है। कुछ ऐसा कि बड़ी-बड़ी कंपनियां भी प्रचार में यह बताना नहीं भूलतीं कि उनकी चाय सीधे असम के चाय बागानों से लाई गयी है। लेकिन अगर वही ताजगी आपको मनोरमा, लावा, मधेश्वर, वन देवी और सारूडीह चाय में मिलने लगे तो!



पढ़कर थोड़ी हैरानी होगी पर ये सब असम चाय की ही किस्में हैं जिन्हें छत्तीसगढ़ के घने जंगलों और हरियाली की चादर ओढ़े सुंदर पठारों से घिरे जशपुर जिले में उगाया जा रहा है। इनके नाम भी इसी जिले से उठाए गए हैं। जैसे मनोरमा, लावा, मधेश्वर और वन देवी- जशपुर से गुजरने वाली चार नदियां हैं तो सारूडीह वहां का एक गांव जहां चाय की खेती होती है।



छत्तीसगढ़ राज्य अपनी धान की दुर्लभ प्रजातियों के लिए विश्व में प्रसिद्ध है. बड़े पैमाने पर धान की खेती होने के कारण राज्य को धान का कटोरा कहा जाता है. प्राकृतिक संपदा से भरपूर प्रदेश में नदियां, जंगल, पहाड़ और पठार भी काफी भू-भाग में हैं. इनमें पठारी भूमि में धान का उत्पादन नहीं हो पाने के कारण अर्थव्यवस्था में उनका योगदान सीमित हो गया था।

जशपुर जिले के पठारी क्षेत्र में चाय और बस्तर में कॉफी की खेती ने संभावानाओं के नए द्वार खोले हैं. कृषि वैज्ञानिकों ने यहां की जलवायु के अध्ययन के आधार पर संभावनाओं को नई दिशा दी है।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पहल से छत्तीसगढ़ शासन की तरफ से टी-कॉफी बोर्ड गठन का फैसला इसी दिशा में अहम कदम है. जिसके तहत राज्य में 10-10 हजार एकड़ में चाय और कॉफी की खेती कराने का लक्ष्य तय किया गया है. जशपुर जिले में चाय की खेती सफलतापूर्वक की जा रही है. यहां शासन ने जिला खनिज न्यास, वन विभाग, डेयरी विकास योजना और मनरेगा की योजनाओं के बीच समन्वय स्थापित करते हुए कांटाबेल, बालाछापर, सारुडीह के 80 एकड़ भूमि में चाय बागान विकसित हो रहे हैं।

कुछ साल बाद जब बागानों से चाय का उत्पादन शुरू होगा तो प्रति एकड़ 2 लाख रुपये सालाना तक का किसान लाभ कमा सकेंगे. यह धान की खेती से कहीं अधिक लाभकारी साबित होगा. इसी तरह बस्तर के दरभा, ककालगुर और डिलमिली में कॉफी की खेती विकसित हो चुकी है. यहां कॉफी की दो प्रजातियां अरेबिका और रूबस्टा कॉफी लगाए गए हैं. बस्तर की कॉफी की गुणवत्ता ओड़िशा और आंध्रप्रदेश के अरकू वैली में उत्पादित किए जा रहे कॉफी के समान है।

कॉफी उत्पादन के लिए समुद्र तल से 500 मीटर की ऊंचाई जरूरी है. बस्तर के कई इलाकों की ऊंचाई समुद्र तल से 600 मीटर से ज्यादा है जहां ढलान पर खेती के लिए जगह उपलब्ध है. 100 एकड़ जमीन में कॉफी उत्पादन का प्रयोग सफल रहा है. बस्तर कॉफी नाम से इसकी ब्रांडिंग भी हो रही है. उद्यानिकी विभाग किसानों को काफी उत्पादन का प्रशिक्षण भी दे रहा है।

चाय-कॉफी की खेती की विशेषता यह है कि इसके लिए हर साल बीज नहीं डालना पड़़ता. किसान कॉफी की खेती से हर साल 50 हजार से 80 हजार प्रति एकड़ आमदनी कमा सकते हैं. धान की तरह बहुत अधिक पानी की भी आवश्यकता नहीं पड़ती. केवल देखभाल करने की आवश्यकता रहती है. वनोपजों के मामले में प्रदेश काफी आगे है और पठारी क्षेत्रों में चाय-कॉफी के उत्पादन से ग्रामीणों के लिए रोजगार और अर्थोपार्जन के नए अवसर सृजित हो रहे हैं।

सरकार की ओर से टी-कॉफी बोर्ड बनाने पहल को सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है. उम्मीद की जाती है कि कृषि वैज्ञानिकों के अध्ययन के आधार पर सरकार की तरफ से हुई इस पहल के सार्थक परिणाम सामने आएंगे और राज्य के किसानों और उद्यमियों की संपन्नता में चाय-कॉफी ताजगी लाने का काम करेगी।

जाने कैसे की जाती है? चाय की खेती

चाय एक प्रकार से विश्वव्यापी लोकप्रिय और महत्वपूर्ण पेय योग्य पदार्थ है | यह एक सदाबहार झाड़ी नुमा पौधा होता है जो थियनेसेसिस नामक पेड़ का प्रजातीय है | चाय में थीन नामक पदार्थ पाया जाता है जो मानव शरीर को ऊर्जा देता है | यह चाय के पौधों की पत्तियों से बनता है। विश्व में सबसे ज्यादा चाय का उत्पादन चीन में किया जाता है। चाय के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। इसका सबसे ज्यादा निर्यात करने वाला देश श्रीलंका है। भारत में दार्जिलिंग, असम, कोलुक्कुमालै, पालमपुर, मुन्नार, नीलगिरि चाय की खेती के लिए प्रचलित हैं।

बुवाई का समय
पौधे लगाने का सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर और नवम्बर माह होता है।

बुवाई का तरीका
चाय के पौध बीज और कलम विधि से तैयार की जाती है। बीज से पौध तैयार करने के काफी मेहनत और समय लगता है। इसलिए इसकी पौध कलम के माध्यम से तैयार की जाती है। बीज के माध्यम से खेती के लिए पहले इसके बीजों से नर्सरी में पौध तैयार की जाती है।

पौधरोपण का तरीका
चाय के पौधों को खेत में तैयार किये गए गड्डों में लगाया जाता है। इसके लिए पहले से खेत में तैयार गड्डों के बीचों बीच एक छोटा सा गड्डा तैयार करते हैं। उसके बाद पौधे की पॉलीथीन को हटाकर उसे तैयार किये गए गड्डे में लगाकर चारों तरफ अच्छे से मिट्टी डालकर दबा देते हैं। इसके पौधों को विकास करने के लिए छाया की जरूरत होती है। इसके लिए प्रत्येक पंक्तियों में चार से पांच पौधों पर किसी एक छायादार वृक्ष की रोपाई करनी चाहिए।
दूरी
खेत में पंक्तियों में 4-5 मीटर के आसपास दूरी रखते हुए गड्डे तैयार कर लें।

अनुकूल जलवायु
चाय की खेती के लिए गर्म आद्र जलवायु सबसे उत्तम होती है। तथा 10 से 35 डिग्री तापमान में इसकी अच्छी पैदावार होती है।
भूमि का चयन
चाय के अच्छे उत्पादन के लिए कार्बनिक पदार्थों से भरपूर हल्की अम्लीय मिट्टी सबसे अच्छी होती है। चाय के बगानों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। इसकी खेती के लिए 4.5 - 5.0 पी.एच वाली हल्की अम्लीय मिट्टी अच्छी मानी जाती है।
खेत की तैयारी
पौध रोपण से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर कुछ दिन के लिए खुला छोड़ देते हैं। उसके बाद खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना दें। इसके पौधे खेतों में गड्डे तैयार कर उनमें लगाए जाते हैं।

खाद एवं रासायनिक उर्वरक
चाय की अच्छी बढ़वार और अधिक उपज के लिए खाद एवं उर्वरक की अधिक आवश्यकता होती है। इसके लिए गड्ढे तैयार करते समय प्रत्येक पौधों को लगभग 20 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकम्पोस्ट देनी चाहिए। रासायनिक उर्वरक में एन.पी. के. और आवश्यक पोषक तत्व मिट्टी परिक्षण के आधार पर देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार की रोकथाम के लिए आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।

सिंचाई
चाय की खेती में सिंचाई बारिश के माध्यम से होती है। बारिश कम या नहीं होने पर हर दिन फव्वारा विधि से सिंचाई करनी चाहिए।


फसल की कटाई 
पौधों को लगाने के लगभग एक साल बाद पत्तियां तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। 
किसान वर्ष में 3 बार इसकी तुड़ाई कर के फसल प्राप्त कर सकते हैं।

उत्पादन 
प्रति हेक्टेयर बगान से लगभग 1800 से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर चाय प्राप्त किया जा सकता है।


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