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कृषि सलाह-वैज्ञानिक विधि से जिमीकंद (सूरन) की खेती !

 
कृषि सलाह- वैज्ञानिक विधि से जिमीकंद (सूरन) की खेती

ग्राम लोहारी सुहेला के सतीश वर्मा ने 8.50 किलो वजन का जिमीकंद का लिया उत्पादन


जिमीकंद या सूरन एक भूमिगत कंद है| जो इसकी उपज क्षमता तथा पाक गुणों के कारण लोकप्रिय हो रहा हैं| उच्च उपज, गैर-तीखेपन वाले किस्मों के प्रवेश के कारण इसे पूरे भारत में व्यावसायिक उत्पादन हेतु अपनाया जा रहा हैं| यह कार्बोहाइड्रेट और खनिजों जैसे कैल्शियम और फॉस्फोरस से समृद्ध हैं| बवासीर, पेचिश, दमा, फेफड़ों की सूजन, उबकाई और पेट दर्द के रोकथाम हेतु अनेक आयुर्वेदिक दवाओं में इन कंदों का उपयोग किया जाता हैं| यह रक्त शोधक का कार्य भी करता हैं|       आज की कड़ी में हम जानेंगे जिमीकन्द की वैज्ञानिक खेती के बारे में।



उपयुक्त जलवायु
जिमीकंद या सूरन उष्णकटिबंधीय तथा उपोष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु में अच्छी तरह उगता हैं| जहां वार्षिक तापमान 30 से 35 डिग्री सेल्सियस और 6 से 8 माह तक अच्छी तरह वितरित 1000 से 1500 मिलीमीटर वर्षा होती हैं|

भूमि चयन

जिमीकंद या सूरन का उत्पादन अनेक प्रकार की मिटटी में हो सकता हैं, परन्तु इस फसल के उत्पादन के लिए अच्छी जीवांशयुक्त बलुई दोमट मिट्टी या बलुई चिकनी दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है| जिसका पी एच स्तर 5.5 से 7.0 के बीच होता हैं|


उन्नत किस्में


जिमीकंद की उन्नत किस्मों का विकास हमारे वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से संभव हो सका है और वर्तमान में आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, केरल एवं गुजरात के अतिरिक्त इसकी खेती देश के उत्तरी एवं पूर्वी राज्यों में भी व्यावसायिक स्तर पर की जाने लगी है| जिमीकंद की कुछ प्रचलित तथा प्रमुख किस्में इस प्रकार है, जैसे-

गजेन्द्र
 यह किस्म को अखिल भारतीय स्तर पर खेती के लिए अनुशंसित किया गया है| इस किस्म की उत्पादन क्षमता सर्वाधिक है और खाने पर गले एवं मुंह में तीक्ष्णता एकदम नहीं होती| इस किस्म में सिर्फ एक ही कंद बनता है और अन्य स्थानीय किस्मों की तरह इसमें अगल-बगल से छोटे कंद नहीं बनते हैं| इसके कंद सुडौल तथा गूदा हल्का नारंगी होता है| यह किस्म दक्षिण और उत्तरी-पूर्वी राज्यों में अत्यधिक लोकप्रिय है| इसका उत्पादन क्षमता 80 से 100 टन है|

श्री पद्मा (एम- 15)
यह दक्षिण भारत की स्थानीय किस्म है| इसकी उत्पादन क्षमता प्रति हेक्टर में अस्सी टन है| एम श्रेणी की अन्य किस्में अच्छी पाई गयी है| इन किस्मों में भी तीक्ष्णता नगण्य है और एक ही सुडौल कंद बनता है|

संतरागाछी 
यह जिमीकंद या सूरन की मध्यम उपज देने वाली किस्म है| जिसमें मुख्य कंद से लगे हुए अनेक छोटे-छोटे कंद बनते हैं और यह किस्म गले में हल्की तीक्ष्णता भी पैदा करती है|

बीज व बीज उपचार
अखिल भारतीय स्तर गजेन्द्र जैसी तीक्ष्णता रहित किस्मों को जिनमें एक ही बड़ा कंद होता है, को छोटे आकार के पूर्ण कंद या बड़े कंदों को छोटे टुकड़ों में काटकर रोपण सामग्री के रूप में प्रयोग किया जाता है| जिमीकंद की व्यावसायिक स्तर पर खेती करने के लिए 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक के पूर्ण या कटे हुए कंदों के टुकड़े उपयुक्त होते हैं| गाय के गोबर के गाढे घोल में मैंकोजेव 0.2 प्रतिशत मिलाकर कटे हुए कंदों के टुकड़ों को उसमें डुबाकर उपचारित कर लेना चाहिए|


गोबर के घोल से निकालने के बाद कंदों को उलट-पुलट कर 4 से 6 घंटे सुखाने के बाद ही रोपण क्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए| जहाँ तक संभव हो, व्यावसायिक स्तर पर खेती के लिए छोटे आकार के पूर्ण कंदों का ही प्रयोग करना चाहिए।


बुवाई का समय

जिमीकंद आमतौर पर 6 से 8 माह में तैयार होने वाली फसल है और सिंचाई की सुविधा रहने पर इसे मध्य मार्च में लगा देना चाहिए| मार्च में लगाई फसल मध्य नवम्बर तक तैयार हो जाती है| बाजार की मांग को देखते हुए 5 से 6 माह बाद से खुदाई शुरू की जा सकती है| पानी की सुविधा न होने पर इसे जून के अंतिम सप्ताह में मौनसून शुरू होने पर लगाया जाता है| मार्च में लगाई जाने वाली फसल की पैदावार स्वाभाविक रूप से जून में लगाई फसल से अधिक होती है|

नर्सरी और रोपण
यदि नर्सरी की सुविधा उपलब्ध हो तो मौनसून शुरू होने के एक माह पूर्व, आंशिक छाया वाली जगह में, जमीन की सतह से 4 इंच ऊँची क्यारी बना कर कंदों को लगभग सटाकर 20 सेंटीमीटर दूर कतार में लगाया जा सकता है| क्यारियों में गोबर की सड़ी हुई खाद, महीन बालू और मिट्टी 1:1:1 के अनुपात में मिलाकर तैयार रखना चाहिए| कंदों के टुकड़ों को क्यारियों में लगाने के बाद धान के पुवाल से ढंक कर हल्का पानी देते रहना चाहिए| तीन सप्ताह में अंकुर और जड़े विकसित होना शुरू हो जाती है| मानसून शुरू होते ही क्यारियों में अंकुरित हो रहे कंदों के टुकड़ों को मुख्य खेत में रोपित कर देना चाहिए|

रोपण की विधि

जिमीकंद की अच्छी पैदावार के लिए उसे हल्के गहरे गड्डों में (40 X 40 X 40 सेंटीमीटर) गोबर की सड़ी हुई खाद, महीन बालू तथा अच्छी मिट्टी (1:1:1) भरकर रोपित करना चाहिए| रोपण में प्रयुक्त होने वाले कंदों के आकार के अनुसार पौधों की दूरी सुनिश्चित की जाती है| यदि 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक के कंदों को रोपा जा रहा है, तो पौधों और कतार के बीच की दूरी 90 सेंटीमीटर रखनी चाहिए|

यदि कंदों के टुकड़ों का आकार छोटा है तो 60 X 60 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए| आम तौर पर व्यावसायिक उत्पादन के लिए 500 ग्राम से 1 किलोग्राम वजन के कंदों को तथा बीज उत्पादन के लिए 50 से 150 ग्राम वजन के कंदों को रोपा जाता है| रोपते समय कंदों को मिट्टी की सतह से 4 से 6 सेंटीमीटर की गहराई में लगाते हैं| रोपण के बाद धान के पुवाल या पत्तों आदि से गड्डों को ढंक देना चाहिए|

अंत: सस्य क्रियाएँ
जिमीकंद या सूरन की पत्तियाँ खुलते समय खरपतवार साफ कर रासायनिक खाद देकर मिट्टी चढ़ाना बहुत आवश्यक है| रोपने के दो माह बाद पुनः खरपतवार साफ कर रासायनिक खाद देकर मिट्टी चढ़ाना चाहिए| जिमीकंद की फसल के बीच प्रारंभिक 2 से 3 माह के भीतर साग, ककड़ी, खीरा आदि फसल लगाकर अधिक लाभ लिया जा सकता है|

फसल चक्र

फसल-चक्र में जिमीकंद (मध्य मार्च से नवम्बर मध्य) में गेहूँ/सरसों/चना/मटर (मध्य नवम्बर से मध्य मार्च) या जिमीकंद (जून मध्य से दिसम्बर मध्य) में भिंडी/अरवी/मक्का/सरसों (दिसम्बर मध्य से जून मध्य) को सम्मिलित किया जा सकता है| दक्षिण में जिमीकंद और केले की मिश्रत खेती लादायक सिद्ध हुई है|

खाद और उर्वरक

जिमीकंद अत्यधिक उर्वरकग्राही फसल है| गोबर की पूरी तरह सड़ी हुई खाद 25 से 30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए| यदि गड्डों में रोपाई की जानी है, तो गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाकर गङ्कों में भर देना चाहिए| रासायनिक खादों में नत्रजन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा 150:100:150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए| मृदा परिक्षण के आधार पर मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है, इसलिए इसकी खेती से अच्छे उत्पादन के लिए मृदा परिक्षण आवश्यक है|

आखरी जुताई या रोपण के समय फॉस्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन और पोटाश की आधी मात्रा देनी चाहिए| नत्रजन और पोटाश की बची हुई मात्रा दो बार में रोपाई के 30 एवं 60 दिन बाद खरपतवार निकाल कर पौधों पर मिट्टी चढ़ाते समय दे देनी चाहिए| अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नत्रजन और पोटाश की मात्रा बराबर 3 से 5 बार में देना ठीक रहता है लेकिन फॉस्फोरस की पूरी मात्रा रोपाई के समय ही दे देनी चाहिए|

सिंचाई प्रबंधन
यदि मार्च में जिमीकंद की फसल की रोपाई की गयी है| तो रोपाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए और उसके बाद समय-समय पर आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए| इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि फसल-वद्धि की किसी भी अवस्था में खेत में पानी का जमाव नहीं रहना चाहिए| कंदों की खुदाई से पूर्व भी हल्की सिंचाई कर देने से सुविधा रहती है|



रोपाई के बाद देखभाल

जिमीकंद या सूरन की रोपाई के 30 से 35 दिनों बाद पत्ता निकल आने पर खरपतवार निकालकर नत्रजन और पोटाश देकर पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए| रोपाई के 60 से 65 दिनों बाद इस क्रिया को पुनः दोहराना चाहिए| फसल को रोग-मुक्त रखने के लिए कवक एवं कीटनाशी दवाओं का छिड़काव भी करना चाहिए|

रोग एवं रोकथाम

जिमीकंद में मख्य रूप से कालर-राट (स्कलेरोशियम राल्फसाई) पत्तियों का झुलसा (फाइटोप्थोरा कोलोकेसियाई) और मौजेक रोग लगते हैं|

रोकथाम- मौजेक रोग मुक्त कंद रोपाई के लिए प्रयोग करें,, रोपाई के बाद धान के पुवाल से मल्चिंग करें तथा रोपाई के 60 और 90 दिनों बाद मैंकोजेब 0.2 प्रतिशत के दो छिडकाव करने से इन तीनों रोगों का प्रभावकारी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है|

खुदाई

जिमीकंद या सूरन की खुदाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि कंद कटने न पायें| खुदाई के बाद कंदों को मिट्टी हटाकर साफ कर लेना चाहिए और जड़ों को तोड़ देना चाहिए| कटे हुए कंदों को तत्काल सब्जी हेतु बिक्री कर देना चाहिए| अच्छे कंदों को आकार के अनुसार छांट लेना चाहिए तथा 4 से 5 दिन तक छायादार स्थान पर फेलाकर सुखा लेना चाहिए| कंदों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते समय हवादार पात्र उपयोग में लाना चाहिए| ताड़ के पत्तों से बनी ट्रे में कंदों को धान के पूवाल या केले के सूखे पत्तों के बीच रखकर परिवहन हेतु भेजा जा सकता है|

पैदावार


जिमीकंद की पैदावार रोपाई के समय प्रयुक्त कंदों की मात्रा पर निर्भर करती है| लेकिन उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से अच्छी फसल होने पर कंदों की मात्रा और पैदावार का अनुपात 1:10 का होता है अर्थात यदि 90 x 90 सेंटीमीटर की दुरी पर लगभग 500 ग्राम वजन के कंद रोपाई के लिए प्रयोग किए जाते हैं तो 6 टन प्रति हेक्टेयर रोपण सामग्री लगेगी तथा 40 से 65 टन प्रति हेक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है|

जिमीकंद या सूरन के बीज उत्पादन हेतु 40 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर 100 ग्राम वजन के कटे हुए कंदों के टुकड़े लगाने पर लगभग 2 से 4 टन प्रति हेक्टेयर रोपण सामग्री लगती है और 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर कंद उत्पादन के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं|

क्या कहते है जिमी कन्द (सूरन)की खेती करने वाले किसान "सतीश कुमार वर्मा"

कृषक सतीश कुमार वर्मा ग्राम लोहारी थाना सुहेला बलौदा बाजार का रहने वाला हूँ।

मैं पहली बार अपने घर के बाड़ी में जिमीकंद की खेती किया इससे जो उत्पादन हुआ उसे मैं दूसरी बार अपने 30 डिसमिल खेत मे बोआई कर दिया , जिससे मुझे लगभग 40 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त हुआ ।
इसकी खेती बहुत कम खर्च में और आसानी से किया जा सकता है। इसकी खेती के लिए कंद को काटकर लगाया जाता है।

इसके लिए मैं खेत की अच्छी तरह जुताई करने के बाद 2,2 फिट की दूरी में मादा बनाया था । फिर कटे हुए कंद को लगाने से 3, 4 घंटे पहले गोबर और फंगीसाइड से उपचारित कर छाया में सूखा दिया था । फिर मादा में 2,2 फिट की दूरी पर गड्ढ़े बनाकर उसमें मैं गेहूं भूसा , गोबर खाद फिर कटे हुए बीज को डालकर मिट्टी से ढक दिया।

गेंहू भूसा का उपयोग करने से दीमक का प्रभाव दिखा लेकिन फसल को नुकसान नही हुआ।

इसकी खेती मैं डॉ गजेंद्र चंद्राकर (इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय) के मार्गदर्शन में किया हुँ। जिसमे सर् के बताए अनुसार खाद के रूप में जीवामृत, रूट राइस , एन. पी. के. का इस्तेमाल किया जिससे बहुत ही बढ़िया उत्पादन प्राप्त हुआ।

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